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महाकइपुष्फयतविरयन महापुराणु
[97.8.1
पंचेव चउत्थणाणधरहं
सत्तेव सुकेवलिजइवरह। चत्तारि सवई वाईवरह
दियसुगयकविलहरणयहरह। छत्तीस सहासई संजईहिं
भणु एक्कु लक्खु मंदिरजईहिं । लक्खाई तिण्णि जहिं साबहि सुरदेविहिं मुक्कसंखगइहिं। संखेज्जएहिं तिरिएहिं सहुँ परमेट्टि देउ सोक्खाइ महुं। णाणाविहोय
विहरेप्पिणु देउ* गामपुरई। सम्मत्तयोयमिच्छामलई
संबोहिवि भव्यजीवकुलई। विहरंतु वसुह विद्धत्थरइ विउलइरि पराइउ भुवणवइ । आवेप्पिणु दुहणिण्णासवरु सेणिय पई वंदिउ तित्थयरु। पुच्छियउ पुराणु महंतु पई भासियउं असेसु वि तुज्झु मई। यत्ता-णिसुणिवि गोत्तमभासिय भरहाणंदविहूसियं ।
संबुद्धा विसहरणरा पुप्फयंतजोईसरा' ॥8॥
इय महापुराणे तिसहिमहापुरसिगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमष्णिए महाकहपुष्फयंतविरइए महाकवे बहुमाणसामिकेवलणाणुप्पत्ती णाम
सत्तणउदिमो परिच्छेउ समतो 1970
पाँच सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे। केवलज्ञान को धारण करनेवाले सात सौ थे। द्विज सुगत कपिल के नय का हरण करनेवाले चार सौ वादीश्वर मुनि थे। आर्यिकाएँ छत्तीस हजार थीं। एक लाख मन्दिरगामी श्रावक थे। तीन लाख श्राविकाएँ थीं। देव और देवियाँ असंख्यात थे। संख्यात तिर्यंचों सहित जिनवरदेव मुझे सुख प्रदान करें। अनेक प्रकार के देवों का अनुरंजन करनेवाले ग्रामों व नगरों में विहार कर, जिन्होंने सम्यक्त्वरूपी जल से मिथ्यारूपी मल धो दिया है, ऐसे भव्य जीव-समूह को सम्बोधित कर धरती पर विहार करते हुए वीतराग भगवान् भुवनपति महावीर घिपुलाचल पर पहुँचे। हे श्रेणिक ! तुमने आकर दुःख का नाश करनेशले तीर्थंकर की वन्दना की। तुमने महापुराण पूछा और मैंने उसका पूरा-पूरा तुमसे कथन किया। ___घत्ता-भरत के आनन्द से विभूषित गौतम गणधर के कथन को सुनकर विषधरों, मनुष्यों को तथा पुष्पदन्त और ज्योतीश्वरों को ज्ञान प्राप्त हुआ।
इस प्रकार त्रेसट महापुरुषों के गुणलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा घिरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वर्द्धमान-स्यामी केवलज्ञान-उत्पत्ति नाम
सत्तानयेवों परिच्छेद समाप्त हुआ।
(8) I. AP add aner this *पाina | R. AP निहसिउ। 7.
संज्य, संत भगवंतहं गवसयह। 2. AP बाईसरह। 3. AP देसगामपुरई। 4. AP सवणवई 5. AP जोइसरा। ४. AP सत्ताणउदिमो।