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महाकइपुष्फवंतविरयउ महापुराणु
[89.1.15
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घत्ता-अमरबरुत्तई णिज्जियमारहु ।
वयणई लग्गई णेमिकुमारहु ||1||
दुवई-तहिं अवसर रिपसंदोहें सिंधिउ विलवारिहि ..
वीणातंतिसहसंताणे गाइउ' विविहणारिहिं ॥छ। उत्तरकुरुसिबियारूढदेहु णं गिरिसिहरासिउ कालमेहु। सोहइ मोत्तियहारें' सिएण णहभाउ' व ताराविलसिएण। रत्तुप्पलमालइ सोह देंतु
णं जउणादहु जणमल हरंतु। ससिसेयसिययसोहासमेउ' णं अंजणमहिहरु तुहिणतेउ। सिरि वलइयवरमउडेण" दित्तु णं सो ज्जि रयणकूडेण जुत्तु। पियवयणाउच्छियमित्तबंधु णिच्छिहु" सिढिलीकयपणयबंधु । पडुपडहसंखकाहलसरेहि। उच्चइड णरखयरामरहिं। तरुसाहासयदंकियपयंगु
फलरसणिवडियणाणाविहंगु। मंदारकुसमरयपसरपिंगुर गुमुगुमुगुमंतपरिममियभिंगु।
धत्ता-काम को जीतनेवाले नेमिकुमार को देवों द्वारा कहे गये ये वचन लग गये।
(2) उस अवसर पर सुरसमूह के द्वारा विमलजलों से वह अभिषिक्त हुए। विविध नारियों द्वारा वीणातन्त्री की स्वर-परम्परा में उनका गान किया गया। उत्तरकत शिविका में आरूढ़ उनका शरीर ऐसा लगता था, मानो गिरिशिखर पर आश्रित कृष्णमेघ हो। वह श्वेत मुक्ताहार से इस प्रकार शोभित थे, मानो तारावलियों से विलसित आकाश-भाग हो । रक्तकमलों की माला से वह ऐसे शोभित थे मानो जनमल को दूर करता हुआ यमना सरोवर हो। शशि के समान श्वेत वस्त्रों की शोभा से सहित वह ऐसे लगते थे, मानो चन्द्रमा से युक्त अंजन पर्वत हो। सिर पर मुड़े हुए श्रेष्ठमुकुट से चमकते हुए ऐसे लगते थे, मानो वही (महीधर) अपने रत्नशिखर से युक्त हो। जिन्होंने प्रियवचनों से अपने बन्धुजनों से पूछ लिया है, ऐसे निःस्पृह तथा प्रणय सम्बन्ध को ढीला करनेवाले उन्हें धौंसा, नगाड़ा, शंख और ढोल के शब्दों के साथ मनुष्यों, विद्याधरों और देवों ने उठा लिया। जिसने वृक्षों की सैंकड़ों शाखाओं से सूर्य को ढक लिया है जहाँ फल के रसों पर नाना पक्षी आकर बैठते हैं, जो मंदार कुसुमों के रज-प्रसार से पीला है, जिसमें गुनगुनाते हुए भ्रमर घूम रहे हैं, जो अशोक वृक्ष के चंचल दलसमूह से आताम्र है और जिसमें कदम्बवृक्ष खिला हुआ है, ऐसे सहस्राम्र वन में जिनवर
४. Bदवानव 4.5 भर। 10.5 अमरु।
(2) I. APS "संतगा। 2. BK गायउ। १. हारिए। 4. भावः। 5.5"हु। 6. जणमणुः जणपतु। 7. A सिघर: Bइत्य for सिया:
S I R. AR विग्य' ।। S ज्ज for ज्जि । 10. B णिच्छिह। 1. B काहलरहि। 12. "कुंदरय।