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________________ 388 ] महाकाइपुष्फयंतविरयज महापुराणु [101.2.8 10 सा कहिं ता ताइ मुणिवि चित्तु पच्किरण ति मंध वन। में सबंधु वुत्तु। जाणिवि तं तह कंदप्पमूलु णिउ गुणवइखंतिहि पायमूलु। ठिदिकरणक्खाणउ ताइ सिठ्ठ वणि सव्वसमिद्ध महाविसिटु। तह दासीणंदणु दारुयंकु अइसई भुक्खिउ णिब्बूढसंकु। तहु मायइ दिण्णउं सरसु भत्तु' उच्चिट्ठउं सेष्टिणितणउं भुत्तु। तं वंतउं ते जणणीइ गहिउ ढंकेवि कंसवत्तम्मि णिहिउ। पुणु छुहियहु तं ताकि ताई माण गदुलह होउ गई। किह अँजिज्जई तं वंतगासु कंटइउ मज्झु देहावयासु। घत्ता-इय दीसइ लोए रिसि संसारहु बीहइ । जे मुक्का भोय ते किं को वि समीहइ ॥2॥ 15 अवरु वि णिसुणहि णरपालु राउ णेवाविउ तेण अयाणएण तें कुक्कुरेण णियरसणइट्ठ ओयरियउ सिवियइ जंतु जंतु दंडग्गे ताडिउ पत्थिवेण तें पोसिउ कोड्डे सारमेउ। मणिकंचणसिक्यिाजाणएण । अण्णहिं दिणि डिभामेज्झ दिट्छ। सो सुणहु असुइ जीहइ लिहंतु। मुणि पुज्जणिज्जु सवें जणेण। उसने अपना सम्बन्ध बता दिया । आर्यिका भी उसके कामदेव के मूल कारण को जानकर उसे गुणवती आर्यिका के चरणमूल में ले गयी। उसने स्थितिकरण (मुनि पद में स्थिति की दृढ़ता) के लिए एक आख्यान कहा-एक महाविशिष्ट सर्वसमृद्ध नाम का सेठ था। दारुक नाम का उसका दासीपुत्र था। शंकाओं का निर्वहन करनेवाला वह अत्यन्त भूखा हो उठा। उसकी माता के द्वारा दिया गया सेठानी का जूठा सरस भात उसने खाया और उसे उगल दिया। माता ने उसे ले लिया और उसे काँसे के पात्र में रख दिया। पुनः उस भूखे बालक को उसने वह भात दिया। पुत्र ने कहा-हे माँ ! इस भात को रहने दो। वह उगला हुआ अन्न कैसे खाया जा सकता है ? मेरे सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गये हैं। __घत्ता-लोक में ऐसा दिखाई देता है कि जो मुनि संसार से डरता है, जो भोगों को छोड़ चुका है, क्या वह उन्हें दुबारा चाहता है ? ___ और भी सुनो। एक राजा नरपाल था। उसने कौतुक से एक कुत्ता पाला। वह अज्ञानी उसे मणि-कांचन शिविकायान में ले गया। एक दिन उस कत्ते ने बच्चे का विष्टा देखा जो कि उसकी जीभ के लिए बहुत प्यारा था। शिविका (पालकी) से जाते-जाते वह उतरा। वह कुत्ता उस अपवित्र पदार्थ को जीभ से चाटने लगा। राजा ने उसे डण्डे के अगले भाग से मारा। मुनि सब लोगों के द्वारा पूज्य होता है। यदि वह सुभट 6. A' मो हिंडड घरिणि भरंतु। 6. A महाबसिछु। 7. A भोज्जु। B. P खुहियको तहो दिणाम ताए। 9. AP भुजिण्याइ वतण्णमासु।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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