________________
101.2.7]
महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
गहवई' दुम्परिसणु गुणमहंत णायसिरि धीय "हालियवरेण भयदत्तु भडारज बंघवेहिं भवदेवेण वि भवणासणेण तें भणिउ भाइ तवचरणु करहि
तहु णाम पसिद्ध सुमित्त कंत । दिण्णी भवदेवहु आयरेण । बंदिउ मुहणिग्गयजयरवेहिं ओहुल्लियमणु" तहु सासणेण । मा धणधणियासागुत्तु मरहि ।
I
पत्ता- तें भणिउ" मुणिंद आगच्छमि घरु गच्छिवि ।
उ" लेबि गितु गियरोहिणि आउच्छिवि ॥1॥
(2)
मणि भणइ सभज्जापासलग्गु ता नियभायरउवरोहण तेणेव होउ होउ त्ति भणिउं पियगुरुसामीवs दिण्ण दिक्ख बारह संवच्छर दिव्यभिक्खु अण्णाहिं दिणि मेल्लिवि सगुरुधामु आउच्छ्रिय तहिं सुव्वय सुखंति
जणु मरइ सबु कामेण भग्गु । 'अविसज्जियकामिणिमोहएण । भयदत्ते सो सच्चउं जि गणिउं । विणु मणसुद्धिइ कहिं धम्मसिक्ख । हिंड घरिणि पभरंतु मुक्खु । एक्कु जि. तं आयउ बुडगामु । णयसिरि का वि जियचंदकति ।
[ 387
15
20
5
नाम कन्या भवदेव को आदरपूर्वक दे दी। जिनके मुख से जय-जय शब्द निकल रहा है, ऐसे बन्धुजनों के द्वारा आदरणीय भवदत्त की वन्दना की गयी। संसार का नाश करनेवाले भवदेव ने भी वन्दना की। उसके उपदेश से भवदेव का मन पसीज उठा। भवदत्त ने कहा- “हे भाई! तपश्चरण कर धन और स्त्री की आशा में मत मर।"
घत्ता - उसने ( भवदेव ने कहा- "हे मुनीन्द्र ! घर जाकर आता हूँ। अपनी पत्नी से पूछकर निश्चित रूप से व्रत लेता हूँ ।"
(2)
मुनि ने कहा कि अपनी पत्नी के पाश में बँधे हुए सभी जन काम से नाश को प्राप्त होते हैं। तब अपने भाई के हठ के कारण स्त्री-मोह को अपने वश में नहीं करनेवाले उसने भी 'हाँ-हाँ' कह दिया। भवदत्त ने उसे सच मान लिया और अपने गुरु के निकट उसे दीक्षा दिलवा दी। परन्तु मन की शुद्धि के बिना धर्म की शिक्षा नहीं होती है। वह मूर्ख भिक्षु बारह वर्ष तक अपनी पत्नी की याद कर घूमता रहा। एक दिन अपने गुरु का स्थान छोड़कर वह अकेला अपने वृद्ध ग्राम आया। वहाँ उसने सुव्रता आर्यिका से पूछा कि चन्द्रमा की कान्ति को जीतनेवाली कोई नागश्री थी, वह कहाँ है ? उसने चित्त में विचार कर उससे पूछा ।
2. P गिरुवइ 8 A गाउं पसिद्ध मेतकेत P जाय पसिद्धु मित्तकंत: 9 AP हालिणिवरेण । 10. A गमेग्गयजयरवेहिं 11 A सोउनियमणु । 12. APA | 13. AP वर लेमि ।
(2) 1 A आसासिय कार्मिणि । 2. A भययं । 3. AP दव्यभिक्खु ।