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महाकपुप्फयंतविरय महापुराणु
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करभरसंदोहउ मिसु मंडिउ तुह मुहदंसणसिरि मतें जणु कंदंतु कणंतु णिरिक्खिउ पुणु सुएण सहुं एत्थु पराइउ गरुयारंभपरिग्गहजुत्तें' परं परयाउसु बप्प णिउत्तउं ता उप्पण्ण गुणिकहबुद्धिइ खाइउं सेणिएण उप्पाइउं पुणु वि भडारउ पुच्छिउ भावें भणु आगामि जम्मि किं होसमि तं आणिवि जइबs घोसइ रयावणिहि दुकम्मविरम्महि पंचविहाई विहत्तसरीरई होसहि भरहि पढमतित्थकरु तं निशुलिगु कुचिपकाएं
रोसें गंदिगाउं परं दंडिउ । जणि सहुं आवंतें संतें । तुह पुत्तें सो अभएं रक्खिउ । कहसंबंध असेसु णिवेइउ । तिब्वकसाएं घणमिच्छत्तें । एवहिं तं कहि जाइ अभुत्तरं । संजाय णिरुवममणसुद्धिइ । दंसणु णिस्संदेहविराइउं । हउं पाबिट्टु अलंकिउ पावें । असुहसुहाई केत्यु भुंजेसमि । णिसुणहि मागस जं होसइ । तुहु होसहि णिव णारउ धम्महि । अणुहुजिवि तहु दुक्ख घोरई । सम्मइ जिह तिह परमसुहंकरु' । विषि धोति लेणियराएं।
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(5) 1. AP गुरुआरंभ | 2. AP दुष्कम्मा" । 3. AP तुहुं होएसहि णारउ धम्महि । 4. AP पर सुहरु ।
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तुमने क्रोध में आकर करभार के समूह का बहाना बनाया और नन्दीग्राम को दण्डित किया । तुम्हारे मुखदर्शन की शोभा की चाह करते हुए और अपनी माता के साथ आते हुए तुम्हारे पुत्र अभयकुमार ने लोगों को रोते और चिल्लाते हुए देखा। उसने उनकी रक्षा की। फिर, पुत्र के साथ तुम यहाँ आये और मैंने अशेष कथा-सम्बन्ध निवेदित किया। भारी आरम्भ और परिग्रह से युक्त घने मिथ्यात्व और तीव्रकषाय के कारण, हे सुभट ! तुमने नरक आयु का बन्ध कर लिया है। अब वह बिना भोगे हुए कैसे जा सकता है ?" उत्पन्न हुई गुणीजन की कथा बुद्धि और अत्यन्त निर्मल चित्तशुद्धि होने से राजा श्रेणिक ने असंशय से शोभित क्षायिक सम्यग्दर्शन अर्जित कर लिया। फिर भी श्रद्धापूर्वक उसने आदरणीय से पूछा - "पाप से अलंकृत में, आगामी जन्म में कहाँ होऊँगा ? यह बताइए । कहाँ मैं अशुभ सुखों का भोग करूँगा ?" यह सुनकर यतिवर कहते हैं- "हे मगधेश ! तुम जो होगे, वह सुनो। दुष्कर्मों की आश्रय धर्मा नाम की पहली नरकभूमि में, हे राजन् ! तुम नारकी होगे। पाँच प्रकार के खण्डित शरीरों और घोर दुःखों को भोगकर तुम भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगे-सन्मतिनाथ के समान परम कल्याणकारक।" यह सुनकर, अपने शरीर को संकुचित करते हुए राजा श्रेणिक प्रणाम करके बोला- "इस नगर में ऐसा कोई दूसरा भी राजा है, जो