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87.16.13]
महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु
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( 16 ) दुवई-हरिणा कुंकुमेण पविलित्तउ छज्जइ णाहदेहओ।
संझारायएण पिहियंगउ णावइ कालमेहओ ॥छ॥ णिवसणु काई तासु वणिज्जइ जो णिग्गंथभाउ पडिवज्जइ। महइ हारु घच्छयलि विलंबिरुणं अंजणगिरिवरु' सरणिज्झरु। कुंडलाई रयणावलितंबई कण्णालग्गई णं रविबिंबई। भणु कंकणहिं कवण किर उण्णइ भुयबंधणई व मुणिवइ वण्णइ । पहु मेल्लेसइ अम्हइं जोएं पयणेउरई कणंति व सोएं। सयमहु जाणइ जिणहु ण रुच्चइ भूसणु सो परिहइ जो णच्चइ। लोयायारे सव्वु समारिलं तियसिदै थुइवयणु उईरि । णाणासद्दमहामणिखाणि
पुणु लज्जिउ वण्णंतु सवाणिइ' । तुच्छइ जिणगुणपारु ण पेक्खइस अण्णु जहण्णु मुक्खु किं अक्खड़। धत्ता-अमर मुणिंद धुणंतु बाल वि बुद्धिइ कोमल ।
तो सव्वहं फलु एक्कु जइ मणि भत्ति सुणिम्मल ॥16॥
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(16) इन्द्र के द्वारा केशर से लिप्त स्वामी की देह ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे सन्ध्याराग से कालमेघ ढक दिया गया हो। उसके वस्त्रों का क्या वर्णन किया जाय जो निर्ग्रन्थ भाव को स्वीकार करते हैं। वक्षःस्थल पर लटकता हुआ हार शोभित था मानो जल के निर्झर से सहित अंजन पर्वत हो। रत्नावलि से ताम्र कुण्डल ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य के प्रतिबिम्ब कान से आ लगे हों। बताओ, कंगनों की क्या उन्नति हो ? मुनिवर उसे बाहु के बन्धन के समान बताते हैं। पैरों के नुपूर मानो शोक से कण-कण ध्वनित होते हुए यह कह रहे थे कि स्वामी योग लेकर मुझे छोड़ देंगे। इन्द्र जानता है कि स्वामी को आभूषण अच्छे नहीं लगते। भूषण यह पहिनता है जो नाचता है, परन्तु लोकाचार से उन्होंने सब कुछ किया। देवेन्द्र ने स्तुति वचन शुरू किये,
"नाना शब्द रूपी महामणियों की खान अपनी वाणी के द्वारा आपका वर्णन करते हुए, मैं पुनः लज्जित हूँ। तुच्छ व्यक्ति जिनवर के गुणों के पार को नहीं देख सकता, दूसरा निकृष्ट मूर्ख क्या कहे ? ___घत्ता-यदि अमर मुनीन्द्र और बुद्धि से कोमल बालक की स्तुति करता है तो सबका फल एक है; यदि मन में निर्मल भक्ति हो।
भावु। 3. S यच्छयल । 4. A गिरिवरं 5. P तियसेंदें। 6. B समीरिज । ' सवाणिज । ४. P5 पेसा । ५. 5 जघाणु।
(16) 1. A तासु काई। 2. 10. A कोसल।