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महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु संजमसीलेण सुहाइयाई चरियामग्नें घरु आइयाइं। जइजुयलई तिण्णि पलोइयाइ । महं णयणई जहं छाइयाई। कि किर कारणु पणथाणुराइ ता भणइ भडारउ णिसुणि माइ। पिहुजंबुदीवि इह भरहखेत्ति महुराउरि जिणवरघरपवित्ति। सफ्यावपरज्जियवइरिसेणु णरवइ तहिं णिवसइ सूरसेणु। तेत्थु जि पुरि वणिवइ भाणुदत्तु । जउणायत्तासइरइहि रत्तु। तह पढमपुत्तु णामें सुभाणु पुणु भाणुकित्ति पुणु अवरु भाणु। पुणु भाणुसेणु पुणु सूरदेउ पुणु सूरदत्तु पुणु सूरकेउ ।
घत्ता तेत्थु महारिसी समजलसायरो। जियपंचेंदिओ णाणदिवायरो ॥8॥
(9) दुवई-पणविवि अभयणंदि णरणाहें णिसुणिवि धम्मसासणं।
मुइवि सियायवत्तचलचामरमेइणिहरिवरासणं' ॥छ। णरवरसाहियसग्गापवग्गि
लइयउं मुणित्तु जइणिंदमग्गि। वणिणाहु वि तवसिरिभूसियंगु थिउ तेण समउ णिम्मुक्कसंगु । जउणादत्तइ वणि फुल्लणीवि वउ लइयउं जिणदत्तासमीवि। ते पुत्त सत्त बसणाहिहूय सत्त वि दुद्धर णं कालदूय ।
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हुए तीन यति युगलों को मैंने देखा और मेरे नेत्र स्नेह से छा गये। इस प्रणयानुराग का क्या कारण है ? यह सुनकर आदरणीय गणधर कहते हैं-हे माता ! सुनो। विशाल जम्बूद्वीप के इस भरतक्षेत्र में जिनमन्दिरों से पवित्र मथुरा नगरी में अपने प्रताप से शत्रुसेना को पराजित करनेवाला सूरसेन नाम का राजा निवास करता था। उसी नगरी में भानुदत्त नाम का सेठ था, जो अपनी पत्नी सती यमुनादत्ता के प्रेम में अनुरक्त था। उसके प्रथम पुत्र का नाम सुभानु था, फिर भानुकीर्ति, भानु, फिर भानुसेन, फिर सूरदेव, सूरदत्त, फिर सूरकेतु था। घत्ता-वहाँ समता-जल के समुद्र, जितेन्द्रिय और ज्ञान-दिवाकर महामुनि
(9) अभयनन्दी को प्रणाम कर और धर्म का अनुशासन सुन राजा ने सफेद छत्र, चंचल चमर, भूमि और सिंहासन छोड़कर, जो स्वर्ग और मोक्ष को साधनेवाले राजाओं द्वारा साधा गया है, ऐसे जैनमार्ग में दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसका शरीर तपश्री से भूषित है, ऐसा परिग्रह से रहित सेठ भी उसके साथ हो लिया। यमुनादत्ता ने भी वन में खिले हुए कदम्ब वृक्ष के नीचे जिनदत्ता आर्या के निकट व्रत ग्रहण कर लिया। वे सातों ही पुत्र व्यसनों के वशीभूत (अभिभूत) हो गये। सातों ही कठोर मानो यमदूत थे। राजा ने उन्हें
5. S तहिं आइयाई। 6. PS माणयत्तु । 7. AP "दत्तासहस्त्तचितु। 8.5 तहे।
(9) 1. I समायवत्त । 2. मुणिवर। 3. 2 द ।