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04.21.151
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महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु
(21) भो भो ताबस तरु म हणु म हणु एत्थच्छइ कोडरि णायमिहुणु। ता भणई तवसि किं तुज्झ णाणु किं तुहुं हरि हरु चउवयणु भाणु। इय भणिवि तेण तहिं दिण्णु घाउ संछिण्णउ सहुं णाइणिइ गाउ । जिणवयणे बिहिं मि समाहि जाय को पावइ धम्महु तणिय छाय। जायाई बे वि भवणंतवासि माणिक्ककिरणकब्बुरदिसासि । धरणिंदु देउ पोमावइ ति देवय णामें पच्चक्खकित्ति। जाणियबहुसमयवियारसारु पभणइ सुभउमु गामें कुमारु। भो पासणाह सुरविहियसेव अण्णाणिय तावस होति देव। तुह पडिकूलहं णिप्फलु किलेसु । तु णिसुणिवि गउ णरवइणिवासु। अण्णाणभाउ गाढयरु धरिवि कुच्छियमुणि तेत्यु ससल्लु मरिवि । जायउ जोइससुरु संवरक्खु कमलाणणु वरणवकमलचक्खु । कुंअरसें जायउ' हयमयासु वरिसाई तीस विगयाई तासु। उज्झाणाहें भत्तिल्लएण
जयसेणें गुणगणणिल्लएण। घत्ता-तहिं अवसरि तेत्थु सुरगुरुमंतिसरूवउ।
पाहुडई लहिवि पेसिउ देवहु दूवउ' ॥21॥
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(21) हे हे तापस ! वृक्ष को मत काटो, मत काटो। इसके कोटर में यहाँ नाग का जोड़ा है।" तब वह तापस कहता है-"तुम्हारा क्या ज्ञान ? क्या तू हरि, हर, ब्रह्मा या सूर्य है ?" यह कहकर उसने लकड़ी पर आघात किया। उसके साथ नाग और नागिन कट गये। जिनवर के वचनों से दोनों ने समाधिमरण किया। धर्म की छाया कौन पा सकता है ? वे दोनों, जिसमें माणिक्यों की किरणों से दिशामुख चित्रविचित्र हैं ऐसे, भवनवासी स्वर्ग में उत्पन्न हुए, धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी, जिनके नाम की कीर्ति प्रख्यात है। ज्ञात किया है बहुत से शास्त्रों के विचारसार को जिसने, ऐसा सुभौम नाम का कुमार कहता है-"देवों के द्वारा सेवित हे पार्श्वकुमार देव ! लोग अज्ञान से (बिना जाने-समझे) तापस हो जाते हैं। प्रतिकूल लोगों में तुम्हारा क्लेश व्यर्थ है।" यह सुनकर कुमार नरपति-निवास चले गये। अपने प्रगाढ़तर अज्ञान भाय को धारण करता हुआ वह (तापस) खोटा मुनि हुआ। वहाँ शल्यसहित मरकर, संवर नाम का ज्योतिषदेव हुआ, कमल के समान मुखवाला और श्रेष्ठ नवकमल के समान आँखोंवाला । अहंकार का नाश करनेवाले उन पार्श्वकुमार की कुमारावस्था के तीस वर्ष बीत गये। उस अवसर पर अयोध्या के राजा, गुणगण के घर जयसेन ने भक्तिभाव से
घत्ता–बृहस्पति मन्त्री के स्वरूपवाला दूत, उपहार लेकर देव के पास भेजा।
(21) I. A'कबरदसासे। 2. AP गावद। 3. AP सुभग 1. A संयतयखु। 5. AP जड़यहूं। 6. AP लएदि। 7. AP दूयऊ।