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________________ 284 ] महाकाइपुष्फयतविश्यउ महापुराणु [94,19.15 पत्ता-पुचिल्लउ वइरि पुणरवि विहिसंजोइउ। णियजणणीताउ तावसु तेण पलोइउ ||19 || (20) महिपालपुरणाहु महिपालु थिरबाहु। महिपालु णामेण परिचत्तकामेण। उप्पण्णसाश कि कपिओ एण: दिव्यं तवं चरइ गोरीपियं भरइ। पंचाणलं सहइ वरगारवं वहइ। णाओ' कुमारेण तेल्लोक्कसारेण। कयचारुकम्मेण गयजम्मजम्मेण। सत्थेण' दारियउ हउँ एण मारियउ। इय सरिवि मज्झत्यु थिउ मुणिवि परमत्यु। परमेट्टि समचित्तु जिह सत्तु तिह मित्तु। सिसु णियइ तणु वित्तु पालतु 'सवसित्तु। ता तवसि तह कुद्ध ण वि णवइ मई मुद्ध। कुलवुड्ढु" भयवंतु दोहिंति मयवंतु। घत्ता-इंधणह" णिमित्तु तरु फोडतु' कुढारें। हियमियवयणेण तावसु भणिउ कुमारें ॥20॥ घत्ता-विधाता ने पहले के वैरी को फिर मिला दिया। अपनी माता के निकट तापस को उन्होंने देखा। ( 20 ) स्थिरभुज वह महीपाल नाम का राजा महीपालपुर का था। काम का त्याग करनेवाले, शोक से संतप्त (पत्नी मर जाने के कारण) इसने क्या तप किया ? यह दिव्य तप करता है, गौरीप्रिय (शिव) की याद करता है, पंचाग्नि सहता है, श्रेष्ठ गौरव को धारण करता है। त्रिलोक में श्रेष्ठ सुन्दरकर्म करनेवाले कुमार ने जान लिया कि गतजन्म में जनमे इसने शस्त्र से विदीर्ण कर मुझे मार दिया था। -यह स्मरण कर वह मध्यस्थ हो गये और परमार्थ जानकर, परमेष्ठी समचित्त, जिस प्रकार शत्रु, उसी प्रकार मित्र । बालक शरीर और धन को देखता है और स्ववशित्व का पालन करता है। तपस्वी उस पर क्रुद्ध होता है कि यह मूर्ख मुझे नमस्कार नहीं करता। मैं कुलवृद्ध और ऐश्वर्यसम्पन्न हूँ। इस प्रकार अहंकार से युक्त वह खेद करता है। घत्ता-ईंधन के लिए कुठार से वृक्ष को फाड़ रहे तापस से हितमित वचनवाले कुमार ने कहा 8. AP वहरि इह पुणरवि संजोइट। (20) 1. AP कंताबिओएण। 2. AP तिच्वं । 3. A महुगार; P वयगारवं। 4. A णायो गाउ। 5. AP 'कम्मेसु । 6. AP "जम्मेसु। 7. AP सत्येहि। 8. AP समु। 9. A समचित्तु। 10. A तउ तथइ तर सुद्धा गउ गवह महमुद्ध। 1. A कुलदुद्छु। 12. AP दोहिति। 1. P इंधणही सित्तु। 14. AP फाडतु।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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