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महाकइपुप्फयंतविरया महापुराण
[94.3.1
मुणिणा धम्मबुद्धि पभणतें संभासिउ गउ महरु चवतें। पई पावहु वि पाबु णउ' संकिउ । भो मरुभूइ काई किउ दुक्किउ । हिंसइ बप्प दुक्खु पाविज्जइ चिरु संसारसमुद्दि ममिज्जइ । हिंसइ होइ कुरूल दुगंधउ कुंटु' मंटु पंगुलु बहिरंधउ। हिंसइ होइ जीउ दुईसणु परहरवासिउ परपिंडासणु। भो भो गयवर हिंस पमेल्लहि । अप्पुणु अप्पउ परइ म घल्लहि । लइ सावयवयाई परमत्थे पेक्खु पेक्खु दुक्कियसामत्थे। बंभणु होतउ जायउ कुंजरु . एत्थच्छहि गिरिगेरुयपिंजरु। जम्मंतरि तहं मंति महारउ
एवहिं जायउ करि विवरेरउ । हउं अरविंदु किं ण परियाणहि करि जिणधम्मु म दुक्खई माणहि। पत्ता-तं णिसुणेवि' गइंदु दुच्चरियाई दुगुंछिवि।
थिउ गुरुपय पणदेवि सावयवयई पडिच्छिवि ॥3॥
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गइ मुणिवरु जगपंकयणेसरु
रण्णि चरइ वउ' रण्णगएसरु ।
मुनि ने 'धर्मबुद्धि हो' यह कहते हुए मधुर शब्दों में हाथी को सम्बोधित किया-“तुम पापी के पाप से भी शंकित नहीं हुए। हे मरुभूति ! तुमने पाप क्यों किया ? हे सुभट ! तुम हिंसा से दुःख पाओगे और चिरकाल तक संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करोगे । हिंसा से व्यक्ति कुरूप और दुर्गन्धयुक्त होता है, कुण्ट (सुस्त, आलसी), निरुद्यमी, लँगड़ा, बहरा और अन्धा होता है। हिंसा से जीव दुदर्शनीय होता है, दूसरे के घर में रहनेवाला और दूसरे का भोजन करनेवाला। हे हे गजवर ! हिंसा छोड़ दो। अपने को अपने से नरक में मत डालो। परमार्थभाव से तुम श्रावकव्रतों को ग्रहण करो। देखो, देखो, पाप की सामर्थ्य से, तुम ब्राह्मण होकर भी हाथी हुए और पहाड़ के गेरु से लाल यहाँ स्थित हो। जन्मान्तर के तुम मेरे मन्त्री हो, इस समय हाथी होकर तुम मेरे विरुद्ध हो। मैं (राजा) अरविन्द हूँ, क्या तुम नहीं जानते ? तुम दुःख मत मनाओ, जिनधर्म धारण करो।" घता-यह सू
यह सुनकर, गजेन्द्र दुश्चरित छोड़कर, गुरुचरणों में प्रणाम कर तथा श्रावक व्रत स्वीकार कर स्थित हो गया।
विश्वरूपी कमल के सूर्य मुनिवर चले गये। वह जंगली हाथी जंगल में व्रतों का आचरण करता है।
(3)1. A पक्ष्यारहो। 2. APण विसाकेउ | SA हिंसह जुअउ दुख दुग्गंधउ; P हिंसक होइ कूस वि दुगंघउ।। कुंटु मंटु। 5. A अप्पर । 6. A ओ अहि: । तुहुं अचाहि। 7. P तं सुणेवि ।
(4) 1. AP वयवंतु गाएतरु।