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महाकइपुष्फयंतविरवउ महापुराणु
[84.1.1
चउरासीतिमो संधि
'गणि भणिउं रिसिदें सोत्तसुहाई जणेरी। सुणि सेणिय जिह जिणजाणिय तिह कह कसहु केरी ॥ धुवकं ॥
धायंतमहंततरंगरंगि
गंगागंधावइसरिपसंगि। पप्फुलियफुल्लवेइल्लवेल्लि कउसिय णामें तावसह पल्लि । तहिं तवसि' विसिटु वसिठ्ठ णामु पंचग्गि सहइ णिवियकामु। मुणि भद्दवीरगुणवीरसण्ण अपणहिं दिणि आया समियसण्ण । बोल्लाविउ तावसु तेहिं एवं अण्णाणे अप्पउ खवहि केंव। "तवहुयवहजालउ विश्वरंति किमिकीडय महिणीडय मरंति। विणु जीवदयाइ ण अस्थि धम्मु । धम्में विणु कहिं किर सुकिउ कम्म। विणु सुक्किएण कहिं सग्गगमणु । किं करहि णिरत्यउं देहदमणु। पडिबुद्ध तेण वयणेण सो वि णिग्गथु जाउ जिणदिक्ख लेवि। मणिवरचरियई तिव्यई चरंतु आइउ महुरहि महि परिभमंतु।
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चौरासीवीं सन्धि अनिन्द्य मुनीन्द्र गौतम गणधर ने कहा-हे राजा श्रेणिक ! जिस प्रकार जिन भगवान के द्वारा ज्ञात है उस प्रकार तुम कानों को सुख देनेवाली कंस की कथा सुना।
दौड़ती हुई बड़ी-बड़ी लहरों की क्रीडा से युक्त गंगा और गन्धावती नदियों के संगम के किनारे खिले हुए फूलोंवाले वृक्ष और लताओं से युक्त, तपस्वियों का कौशिक नाम का गाँव था। उसमें विशिष्ट वशिष्ठ तपस्वी रहता था। काम को जिसने नष्ट कर दिया है. ऐसा वह पंचाग्नि तप तपता था। दसरे दिन इन्द्रिय चेतना को शान्त करनेवाले भद्रवीर और गुणवीर नाम के दो मुनि वहाँ आये। उन्होंने तापस से इस प्रकार कहा-अज्ञान से अपने को क्यों नष्ट करते हो ? आग की ज्वालाएँ फैलती हैं तो धरती के घोंसलों में कृमि और कीड़े मरते हैं। जीव-दया के बिना धर्म नहीं होता और धर्म के बिना पुण्य कर्म कैसे हो सकता है और पण्य कर्म के बिना स्वर्ग-गमन कैसे ? इसलिए तम व्यर्थ देह का दमन क्यों करते हो ? इस वचन से उस तपस्वो का विवेक जाग्रत हो गया और जैन-दीक्षा लेकर वह दिगम्बर मुनि हो गया। मुनिवर के तीव्र
(i) 1.5 गयणेदें। 2. 11 सह । 3. AP "तरंगमांगे । 4. AB सरिसुसंगे; P°मरिससांगे। 5. 11 पप्फुल्लफु' | 6. AB 'वल्लि । 7. A तवसिछु वसिटु; B सिट्टु बिसिछु। 8. Aणवहु । 9. AT जाला: B जालई। 10. B पहुरह ।