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________________ 194 | महाकइपुष्फयतविश्वर महापुराणु 190.8.1 दुवई-जंबूणामदीवि 'पुब्बिल्लविदेहइ पुक्खलावई । देसु असेसदेसलच्छीहरु पसमियमाणवावई ॥छ॥ वीयसीयपुरि दमयहु वणियहु देवमई ति घरिणि धणधणियहु। देखिल सुय सहमित्तहु दिण्णी पइमरणेण भोयणिबिण्णी'। मुणि जिणदेउ णाम आसंघिउ वम्महु ताइ तवेणवलंघिउ । गुरुचरणारविंदु "सुमरेप्यिणु कालि पउण्णइ तेत्यु मरेष्यिणु । देवय णवपल्लवपाययणि उप्पण्णी मंदरणंदणवणि। तहि भुजतिहि सोक्खु सहरिसहं चउरासीसहास गय परिसहं। पुणु महुसेणबंधुवइणामह तुहं हूई सि पुत्ति सुहकामहं। बंधुजसंक विहियजिणसेवहु अवर धूय सुंदरि जिणदेवहु। सा जिणयत्त णाम विक्खाई तुज्झु वयंसुल्लिय' पिय' हूई। जिणकमकमलजुयलगयमइयउ बेण्णि वि संणासेण जि मुइयउ । पढमसग्गि तुहं देवि कुबेरहुं चिरसंचियसकम्मसुंदेरहु।। पुणु वि पुंडरिकिणिपुरि तरुणिहि वज्जें वणिएं सुष्पहरिणि । जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश है। उसमें अशेष (सम्पूर्ण) देश की लक्ष्मी को धारण करनेवाले तथा मानवी आपत्तियों को शान्त करनेवाले वीतशोक नामक नगर में दमनक नामक धन से सम्पन्न वणिक की देवमती नाम की गृहिणी थी। उसकी पुत्री देबिल सौमित्र को दी गयी थी, जो पति की मृत्यु हो जाने से भोगों से विरक्त हो गयी थी। वह मुनि जिनदेव की शरण में गयी। उनके तप के प्रभाव ने कामदेव को भी अतिक्रान्त कर दिया था। गुरु के चरणकमल की चाद कर, समय पूरा होने पर, वहाँ से मरकर वह नव पल्लवोंवाले वृक्षों से सघन सुमेरुपर्वत के नन्दनवन में उत्पन्न हुई। वहाँ सुख भोगते हुए उसके हर्षपूर्वक चौरासी हजार वर्ष बीत गये। फिर तुम शुभकामवाली मधुसेन और बन्धुमती की बन्धुयशा नाम की पुत्री हुई। जिनवर की सेवा करनेवाले जिनदेव की एक और कन्या थी जो जिनदत्ता के नाम से विख्यात थी। वह तुम्हारी प्रिय सखी बन गयी। जिन भगवान के चरणकमलों में अपनी मति को लगानेवाली वे दोनों संन्यासपूर्वक मर गयीं और प्रथम स्वर्ग में चिरसंचित अपने कर्म सौन्दर्यवाले कुबेर की तुम पुत्री हुईं। फिर पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रमुष्टि वणि की सुप्रभा नाम की युवती गृहिणी से, हे पुत्री ! तुम सुमति नाम (8) यादिनाव 2. B "विदेहे . असेतु । 1. शोधरि . 5. 3 सह । परिणी । B. PAIs घणणियहो। 7.A सोधित R.ABP कोण मि . मणि U.A ने सोवरन् । निहिं सोक्सः भुजांत सोच सहयरिसह। 11. B विअंसुजय।।2.5 प्रिय ।। ५. A135 मइयज। 11 3 कामसन्नी मुकम्नमांदा।IAN एंडकिणि AIS. पुंडगि guitast Mss , S पुंडरिगिणिपुरि।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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