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95.10.91
महाकइपुप्फयंतविरयउ
महापुराणु
विस्सदि पुणु जुवरायत्तणि ।
उवरि देंतु करु सघरिणिघणथणि । त विसादितहिउ ।
धक्कु विसाहभूइ सुहुत्तणि
एक्कहिं दिणि सो णियणंदणवणि जा कीलइ सर पट्ट
यत्ता - आवेष्पिणु मंदिरु णयणादिरु अइभावें ओलग्गिउ । अइकोइलकलयलु चलकोमलदलु ताउ तेण बणु मग्गउ ||9||
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ताव' ताय जुवरायहु केरउं
जइ ण देसि तो जामिविएस हु दाइउ वचवि कुडिलें भावें अवरहिं दिणि वड्डियउच्छाहें पच्चंतई बलवंतई जायई तुहुं णिवरज्जु पुत्त पालेज्जसु जर तुम्हहिं करवालु धरिज्जइ एव भणेपिणु गउ रिउसेण्णई पित्तिएण उज्जाणु सजायहु
महु उज्जाणु देहि "सुहगारउं । ता णिग्गय मुहि बाय गरेसहु । मि पुत किं सुष्णपलावें । भाइतणउ बोल्लिउ महिणाहें । जामि ताई हिणमि कयघाय । ता पभणइ णंदणु पसरियजसु । तो मई किंकरेण किं किज्जइ । तेण णिहित्तई छिण्णइं भिण्णई। ढोइउ रइकीलाकयरायहु ।
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3. AP लयमवणि 1. AP ताम 5. AP अलिकोइल |
( 10 ) 1. AP ताय । 2. AP दिहिगार5 3. AP विदेसको 4 A देवि । 5. P कपकायां ।
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राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। विशाखभूति राजगद्दी पर बैठा और विश्वनन्दी युवराज पद पर प्रतिष्ठित हुआ। एक दिन वह अपने नन्दनवन में जब अपनी पत्नी के सघन स्तन पर हाथ डालता हुआ सरोवर में प्रवेश कर क्रीड़ा कर रहा था, तो वहाँ उसे विशाखनन्द ने देख लिया ।
धत्ता- वह अपने नेत्रों के लिए आनन्ददायक अपने घर आकर अत्यन्त आग्रह से पिता की सेवा में लग गया। कोयलों के कलकल से युक्त, चलकोमल दलवाले उस नन्दनवन को उसने पिता से माँगा ।
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वह बोला - "हे पिता ! मुझ युवराज के लिए शुभकारक उपवन दो । यदि नहीं देते हो तो मैं विदेश चला जाऊँगा ।" तब राजा के मुख से यह बात निकली - "हे पुत्र ! मैं दायी (भतीजा, विश्वनन्दी) को कपटभाव से धोखा देकर तुम्हें दूँगा । हे पुत्र ! शून्य प्रलाप से क्या ?" दूसरे दिन बढ़ रहा है उत्साह जिसे, ऐसे राजा विशाखभूति ने अपने भाई के पुत्र कहा - "सीमान्त प्रदेश बहुत शक्तिशाली हो गये हैं, मैं जाता हूँ और आक्रमण करनेवाले उनको मारता हूँ। हे पुत्र ! तुम अपने राज्य का परिपालन करना।" यह सुनकर, प्रसरितयश पुत्र ने कहा - "यदि आपको तलवार उठानी पड़ी, तो फिर मैं आपका सेवक क्या करने के लिए हूँ।” यह कहकर वह गया और शत्रुसेना को उसने छिन्न-भिन्न कर नष्ट कर दिया। चाचा ने रतिक्रीड़ा का राग करनेवाले अपने पुत्र के लिए उद्यान दे दिया। आकर युवराज विश्वनन्दी ने यह सुना । उसने सोचा कि मेरी सेवा को