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मत्राकइपुप्फयंतविरय महापुराणु
195.10.10
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सिसुपहुणा आएणावण्णि
पेसणु मेरउ कि पि ण मण्णि। उववणु ससुयह दिण्णु पिउन्- को णउ खद्ध पहुत्तणगव्यें। गउ वणु रणसएहि णिवूढउ दिउ दुठ्ठ कविट्ठारूढउ। रिजणा सहुं धरणीरुहु पेल्लिउ तेण जाम उम्मूलिवि घल्लिङ। पुणु खुद्देण माणवहु लंघिउ पत्थरखंभु' झत्ति आसंघिउ। पत्ता-ता जइणीणंदणु रणजुज्झणमणु तहिं मि पवणचलु पत्तउ ।
पहणेवि सदप्पइ पाणितलप्पइ खंभु चि फोडिवि पित्तउ |॥10॥
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पुणु णासंतु जंतु रिउ जोइवि हा हा महुं भुयबलु किं किजइ हुन्झउ किं उबवणु कि जोजारा. सहुँ सयणहिं णीसल्लू करेप्पिणु विस्सोंदे दिक्खाइ अलंकिउ भिक्खहि मुणिवरु महुर पइट्टल वेसापासावत्य जाणित
तेण पउत्तउं अप्पङ सोयवि । जेण बंधुसंतावउ दिज्जइ। उति दे गई थणु परियार, संभूयहु कमजयलु णवेप्पिणु। गउ विसाहभूइ वि' भवसंकिउ । रज्जपह₹ रिउणा दिछ। आसि एण हउं वणि अवमाणिउ।
ऋछ भी नहीं माना गया। चाचा ने नन्दनवन अपने पत्र के लिए दे दिया ! प्रभता के गर्व से कौन नहीं भ्रष्ट होता है ? सैकड़ों युद्धों का निर्वाह करनेवाला वह वन में गया। उसने उस दुष्ट (विशाखनन्दी) को कैथ के पेड़ पर चढ़ा हुआ देखा। उसने शत्रु के साथ वृक्ष को घात कर, जब तक उखाड़कर फेंका, तब तक बह क्षुद्र मानपथ का उल्लंघन कर शीघ्र ही पत्थर के खम्भे के पीछे छिप गया।
पत्ता-तब युद्ध में लड़ने की इच्छा रखनेवाला पवन के समान चंचल वह जैनी पुत्र वहाँ पहुँचा। दर्पसहित एक चाँटा मारकर उसने खम्भे को भी फोड़कर (तोड़कर) गिरा दिया।
फिर भागते हुए शत्रु को देखकर उसने शोक करते हुए स्वयं से कहा- हा हा ! मेरे बाहुवल ने यह क्या किया कि जिसने अपने भाई को सन्ताप दिवा। आग लगे इस उपवन और यौवन से क्या ? अपना शरीर, घर, धन और परिजन अस्थिर हैं। स्वजनों के साथ, अपने को शल्यरहित कर, सम्भूत मुनि के चरणकमलों को प्रणाम कर विश्वनन्दी ने स्वयं को दीक्षा से अलंकृत कर लिया। संसार से आशंकित होकर विशाखभूति भी चला गया । भिक्षा के लिए मुनिवर विश्वनन्दी ने मथुरा नगरी में प्रवेश किया। राज्य से भ्रष्ट शत्रु (विशाखनन्दी) ने उन्हें देखा। एक वेश्या के प्रासाद पर बैठे हुए उसने जान लिया कि इसने (विश्वनन्दी ने) वन में मेरा अपमान किया था। उस अवसर पर एक सनःप्रसूता गाय से आहत होकर दैव से आक्रान्त वह मुनि गिर
b. Pा । 7.AP वरसिलखंभ। ४.APो जुझण' | 9. AP पबलबल ।
(11) I. A विण धि सकिन । 2. AP नभ।