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महाकइपष्फयंतबिरयउ महापुराणु
[82.9.1
जिणु कहइ एत्थु 'भारहवरिसि कोसलपुरि पउरजणियहरिसि। . णरवइ अणंतवीरिउ वसइ जसु जासु चंदजोण्ह वि हसइ । तेत्थु जि सुरिंददत्तउ वणिउ गुणवंतु संतु भल्लउ भणिउ। अरहंतदेवपविरइयपह
अणवरउ देह दीणार दह। अहमिहि वीस चालीस पुणु अमवासहि' मणकवडेण विणु। अट्ठउणउं पब्धि पब्धि मुयइ' दविणे जिणु पुज्जइ मलु धुयई। तें जंतें सायरपारपरु
घरि अच्छिउ पुच्छि' विप्पु वरु। भो रुद्ददत्त' सुइ करहि मणु लइ बारहसंवच्छरह" धणु। पुज्जिज्जसु जिणवरु एण तुहं हउँ एमि जाम जाएवि सुहं। इय भासिधि णिग्गउ सेट्टि किह बंभणमणभवणहु धम्मु जिह। घत्ता-विरइयकित्तिमवेसइ खद्धउं जूबइ। बेसइ। वडियजोवणदप्पें देवदव्वु खलविप्पें ॥9॥
(10) पुणु पट्टणि रयणिहिं संचरइ परघण्णु' सुवण्णइं अवहरइ। अवलोइउ सेणें तलवरिण कुसुमालु धरिउ गिठ्ठरकरिण ।
जिन कहते हैं-इस भारतवर्ष के पौरजनों के लिए हर्षदायक कोशलपुर में राजा अनन्तवीर्य निवास करता था। उसका यश चन्द्रमा की चाँदनी का उपहास करता था। वहाँ सुरेन्द्रदत्त वणिक गुणी और बहुत भला कहा जाता था। अरहन्तदेव की पूजा करने के अनन्तर वह प्रतिदिन दस दीनार देता था- अष्टमी को बीस
और फिर अमावस्या को चालीस, बिना किसी कपट के। पर्व-पर्व पर आठ गुना अधिक देता था। इस प्रकार धन से जिन की पूजा (शुद्ध भावों से) करता और मल (कर्ममल) को धोता । समुद्रपार जाते हुए उसने (अपने मित्र) ब्राह्मण को घर में रखते हुए कहा-“हे रुद्रदत्त, तुम अपने मन को निर्लोभ रखना, यह बारह वर्ष का धन लो, इससे तुम तब तक जिनवर की पूजा करना, जब तक जाकर मैं सुख से लौट नहीं आता।" यह कहकर सेठ जैसे ही घर से निकला, वैसे ही ब्राह्मण के मनरूपी घर से धर्म निकल गया।
पत्ता-उस दृष्ट ब्राह्मण ने यौवन का घमण्ड बढने पर सारा देव-द्रव्य बनावटी रूप बनानेवाली वेश्या और जुए में उड़ा दिया।
(10) वह रात में नगर में घूमता और दूसरे के धन तथा स्वर्ण की चोरी करता। सेन नाम के कोतवाल ने
(9) 1. P भरह 12.8 सुरिंदयत्तउPS सुरेंददत्तउ। 5. A मावासहे। 4. B मुवइ । 5. Bधुथइ। 6.5 "पारु परु। 7. AP पस्थिर। 8. ABP विष्पवरु; 5 विपरु । 9. B सइयत्त । 10. B संवच्छाहिं। 1. APS जूएं।
(10) 1.8 "धण्ण। 2. A सेपणे।