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________________ [81.1.12 महाकपुष्कयतविरयउ महापुराणु हरिकुलणहवलसूरयं इंदियरिउरणसूरयं । णीणं सिवपुरवासरं" तिवारयणीवासरं। तवसंदणणेमीसयं णमिऊणं णेमीसयं । पत्ता-भारहु भणमि हउं पर किं पि णत्थि सुकइत्तणु। मज्झि वियक्खणहं किह मुक्खु *लहमि गुणकित्तणु ॥1॥ 5 णउ मुणमि विसेसणु णउ विसेसु णउ छंदु गणु वि देसिलेसु । अहिकरणु करणु णउ सरपमाणु णायण्णिउ आगमु णउ पुराणु। कत्तारु' कम्मु णउ लिंगजुत्ति परियाणमि णउ एक्क वि विहत्ति। दिगु दंदु कम्मधारउ समासु तप्पुरिसु बहूवीहि य पयासु। अव्वइभाउ वि णउ भावि लग्गु । णउ जोइउ सुकइहिं तणउ मग्गु। णउ गर वि मयंत टिकंतु दिहु पर अत्थि अत्थु णउ सदु मिठु। भरहहु केरइ मंदिरि णिविट्ठ जणि णउ लज्जमि एमेव घिठु । हउं कव्वपिसल्लल कव्वकारि जायउ बहुसुयणहं हिवयहारि।" खलसंढह" पुणु परदोसबसणु "ण णिवारमि विरसई भसउ भसणु। दी है। सुर, नर और नाग जिनके चरणों में नत हैं, जो हरिवंशरूपी आकाश के लिए सूर्य हैं, जो इन्द्रियरूपी शत्रु के लिए युद्धशूर हैं, जो मनुष्यों के लिए शिवपुर का वास देनेवाले हैं, जो तृष्णारूपी रात के लिए सूर्य हैं, जो तपरूपी चक्र के आरे हैं, ऐसे नेमीश्वर को नमस्कार कर__घत्ता-मैं भारत (कौरव-पाण्डव-युद्ध) का वर्णन करता हूँ। मेरे पास कुछ भी कवित्व नहीं है। विचक्षणों (बुद्धिमानों) के बीच में मैं मूर्ख किस प्रकार गुणकीर्तन (यश) पा सकता हूँ ! (2) न मैं विशेषण जानता हूँ और न विशेष्य । न छन्द जानता हूँ और न मात्राएँ, न गण (धातुओं के भवादिगण) और न देशी शब्दों को लेशमात्र जानता हूँ। अधिकरण, करण (कारक) और न स्वरों का प्रमाण मुझे मालूम है। न तो मैंने आगम सुना है और न पुराण; कर्ता, कर्म और लिंग को भी मैं नहीं जानता हूँ। एक भी विभक्ति; द्विगु, द्वन्द्व, कर्मधारय, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और अव्ययीभाव समास में भी मेरा चित्त नहीं लगता; मैंने सुकवियों के मार्ग को भी नहीं देखा। न मैंने सुबन्त-तिङन्तपद देखे; न मेरे पास अर्थ है और न मीठा शब्द । मन्त्री भरत के भवन में रहता हुआ मैं ऐसा ही एक ढीठ हूँ जो लोगों से लज्जित नहीं होता। काव्य-निर्माता और काव्य में निपुण, मैं बहुत से सुजनों के हृदय का प्यारा हो गया हूँ। परन्तु फिर भी, मैं दूसरे के दोष IG. S औरउल । 11. "परिभ। 12.5 लादि। (2) 1. 5 कत्तार। 2. 5 परियाणवि एक पि ण वि। 3. A तप्पुरिसु वि घयिहि विहिपपासु। 4. B अन्वइमविं वि। 5. ABP भाउ। 6. A तिडंतु; P भियंत्। 7. AP पइट।H. A जणि 'गउ जणि लज्जयि एवं बिछु। 9. A एय; ] एमेय। 10. B हियह। 11. Als. संडष्टु अgainst Mss.; but gloss in S दुर्जनसमूहान। 12.18 ग: वारमि।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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