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महाकइपुष्फयतविरय महापुराणु
[ 84.4.1
अण्णु' वि हियइच्छिउ' देमि देसु छुडु करउ को वि एत्तउ किलेसु । इय भणिवि णिचंकविहूसिवाईं आलिहियई पत्तई पेसियाई। सयलहं मंडलियहं पस्थिवेण गय किंकरवर दसदिसि जवेण। एक्केण एक्कु तं धित्तु तेत्यु अच्छइ वसुएउ" कुमारु जेत्थु। जोइउं वाइउं तं वइरिजूरु देवाविउं लहं संगामतरू। पक्खरिय तुरय करि कवयसोह मच्छरफुरंत' आरूढ जोह। णीसरिउ सणि व कयदेसदिट्ठि अंधयकविहिसु वइरिविट्टि । सहं कसें रोहिणिदेविण्याहु
णं ससिमंडलह विरुद्ध राह। परमंडलु विद्धसंतु जाइ
पहि उप्पहि बलु कत्थ वि ण माइ। घत्ता-चलकेसरकररुहमासुरहरिकट्टिइ। रहि चढियउ।
जयलंपटु कुइउ' महाभडु वसुएबडु "अभिडियउ ॥4॥
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'सउहद्देएं संगामि वुत्त आवाहिउ सो धयधुव्वमाणु
हरिमुत्तसित्त हय रहि णिउत्त। दलट्टिउ रिउ' जपाणु जाणु।
और भी मनचाहा देश मैं दूंगा, कोई भी शीघ्र इतना कष्ट करे-यह कहकर अपने अक्षरों से विभूषित लिखे गये पत्र, उस राजा ने सब माण्डलिक राजाओं को प्रेषित किये। श्रेष्ठ अनचर सब टिश से गये। एक अनुचर ने वह पत्र वहाँ डाला जहाँ कुमार वसुदेव थे। शत्रुओं को सतानेवाले उसने देखा और बाँधा और शीघ्र ही युद्ध का नगाड़ा बजवा दिया। घोड़ों को पाखर (लोहे की झूल) पहना दिये गये। शोभायमान कवच पहने हुए, मत्सर से तमतमाते हुए योद्धा उन पर आरूढ़ हो गये। उस देश की ओर दृष्टि बनाकर
कनिष्ठ भाई का पुत्र वह शत्रुओं के लिए पापवती के समान निकला। रोहिणी देवी के स्वामी क्रुद्ध वसुदेव कंस के साथ ऐसे मालूम होते थे मानो राहु चन्द्र-मण्डल के विरुद्ध हो गया हो। शत्रुमण्डल का नाश करती हुई कंस की सेना जाती है, और मार्ग-कुमार्ग कुछ भी नहीं देखती है। __घत्ता-चंचल अयाल और नखों से भास्वर सिंहों के द्वारा खींचे गये रथ पर बैठा हुआ तथा जय के लिए चंचल महाभट्ट (सिंहरय) कुमार वसुदेव से भिड़ गया।
अन्ध
संग्राम में सुभद्रा के पुत्र ने सिंहों के मूत्र से लिपटे घोड़ों से रथ बाँध लिये और उड़ते हुए ध्वज से
(4) 1.
P 2 . PREMS हियक्षिा APS पराएव"। 1, वैरिजूरु। 3. PSAS. संगाहतूरु। HAR. मच्छरपारय।AP अंधकट्टीस्ट । B. 1 उरांवड़ि। 9. रोहिणी | 10. भासुरू। 11. "कहिय। 12. कुर्दिड। 18. APणे भिडिय।
(5) | AP सउहटे जा सगामधुत्त । सउहाँ गं संगाने। 2. A रहबरे णिउत्त। 3. B आवाहिवि। 4. तहिं।