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________________ 312 | महाकइपुष्पवतविरयउ महापुराणु [96.7.3 एयहं दोहिं मि 'सुरसिरिविलासु करि घणय कणयभासुरु णिवासु। ता कबउ कुंडपुरु तेण चारु सव्वत्थ रयणपावारभारु । सव्वत्थ रइयणाणादुवारु सब्वत्थ परिहपरिरुद्धचारु। सव्वत्थ फलियणंदणवणालु सब्यत्य तरुणिणच्चणवमालु । सव्वत्थ धवलपासायवंतु सम्वत्थ सिहरचुंबियणहंतुं। सव्वत्थ फलिहबद्धावणिल्तु सव्वत्थ घुसिणरसण्डयगिल्लु । सच्चस्थ णिहित्तविचित्तफुल्लु सव्वस्थ 'सुफुल्लंघयपियस्तु । सम्वत्य वि दिव्यपसंडिपिंगु सव्वत्थ चि मोत्तियरइयरंगु। मस्वत्थ.वि वेमलिएहि फुरई सब्वत्थ वि ससिकतेहिं झरइ। सव्यस्थ वि रविकंतेहिं जलइ सम्बत्य चलियचिंधेहिं चला। सव्वत्थ पडहमद्दलरवालु सव्वत्थ पडियणडणमुसालु । सव्वस्थ णारिणेउरणिघोस सव्वत्य सोम्मु परिगलियदोसु। घत्ता-पहुपंगणि तेत्यु बंदियचरमजिणिदें। छम्मास विरइय रवणचिट्ठि जाखदें ॥7॥ दुवई ...ठियसहयलणिहियसयणयलइ' सयलदुहोहहारिणी। णिसि णिवंगयाइ सिविणावलि दीसइ सोक्खकारिणी ॥छ॥ होंगे। हे धनद ! तुम इन दोनों के लिए देवश्री के बिलास से युक्त स्वर्ण की तरह चमकते हुए निवास की रचना करो।" तब उस यक्ष ने सुन्दर कुण्डपुर की रचना की। सर्वत्र रत्नमय प्राकारों का समूह था। सर्वत्र नाना द्वार रचित थे। सर्वत्र सुन्दर परिखाओं से वेष्ठित था। सर्वत्र नन्दनवन फलित थे। सर्वत्र युवतियों के नृत्य का कोलाहल था। सर्वत्र धवल-प्रासादोंवाला था। सर्वत्र शिखरों से आकाश को चूम रहा था। सर्वत्र स्फटिक मणियों से विजड़ित धरतीवाला था। सर्वत्र केशर के छिड़काव से गीला (आद) था। सर्वत्र विचित्र फूल लगे हुए थे। सर्वत्र भ्रमरों से प्रिय था। सर्वत्र दिव्य स्वर्ण से पीतिमा थी। सर्वत्र मोतियों से रचित रंगोली थी। सर्वत्र वैदूर्य मणियों की चमक थी। सर्वत्र चन्द्रकान्त मणियों से वह झर रहा था। सर्वत्र सूर्यकान्त मणियों से प्रज्वलित था। वहाँ सर्वत्र चंचल पताकाएँ फहरा रही थीं। वह सर्वत्र पटह और मृदंग के कोलाहल से पूर्ण था। सर्वत्र नाट्य शालाओं में नटों का नृत्य हो रहा था। सर्वत्र नारियों के नूपुरों की झंकार थी। सर्वत्र सौम्य तथा दोष से रहित था। घत्ता-राजा के प्रांगण में, अन्तिम जिनेन्द्र की वन्दना करनेवाले कुबेर ने छह माह तक रत्नों की वर्षा की। श्रीसौध-तल पर निहित शयनतल पर नींद में सोई हुई, सकल दुःख-समूह का हरण करनेवाली प्रियकारिणी (7) 1. AP सुरसरि । 2. A पायारसारु। 3. A सुफुलिलघुप" । 4. AP "मंदल"। 5. P सोमु । 6. AP "चरिम । (8) 1. AP सिय।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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