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महाकइपुष्फयंतावरकर महापुराणु
[94.1.1
चउणउदिमो संधि मयमत्तउ मारणसीलु चतु मारइ जं जं पेच्छइ। सहुं वरुणाकरिणिपरत्तमणु' सो करिंदु तहिं अच्छइ ॥ ध्रुवकं ।।
जा "तावेत्तहि पोयणपुरवरि तेणरविंदरिंदें णियपरि। अच्छतेण दिटु सियजलहरु तुंगसिहरु सोहइ णं जिणहरु । एणायारे णयणाणंदिरु
किज्जइ जयवइपडिमहं' मंदिरु। एव भणेप्पिणु कागणि लेप्पिणु जा किर लिहइ राउ विहसेप्पिणु। ता तहिं तं सरूउ खणि गट्ठ अण्णु जि काई वि पहुणा दिट्ठउँ। अद्भुवु धुवु ण किं पि संसारइ कि कीरइ किर भई रामारई। एव विचिंतिवि तणु व वियप्पिवि महिमंडलु णियसुयह समप्पिवि। णरवइ विरइयदुक्कियसंवरु जायउ तक्खणि देउ दियंबरु । ___घत्ता-संमेयहु जंतु सो संपत्तउ भीसणु।
अण्णेक्कु समत्थु सत्थवाहु सल्लइवणु in
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चौरानवेवी सन्धि मतवाला, मारणशील और चंचल वह गज जिस-जिसको देखता उसे मारता। वरुणा हथिनी में अत्यन्त अनुरक्त-मन वह करीन्द्र वहीं रहने लगा।
इसी बीच यहाँ पोदनपुर नगर में, अपने घर में रहते हुए उस अरविन्द राजा ने एक श्वेत मेघ देखा जो मानो ऊँचे शिखरवाले मन्दिर के समान शोभित था। इसी आकार का, नेत्रों के लिए आनन्ददायक जगत्पति जिनदेव की प्रतिमाओं का मन्दिर बनाया जाए, यह विचार कर जैसे ही वह राजा हाथ में कागज लेकर, हँसते ह खता (चित्रित करता है वैसे ही उस मेघ का स्वरूप तत्काल नष्ट हो गया। राजा ने दूसरा ही कोई रूप देखा। 'संसार में सब-कुछ अनित्य है, नित्य कुछ भी नहीं है, फिर मैं स्त्रीरति में बुद्धि क्यों करता हूँ ?' यह विचार कर और महीमण्डल को तृण के समान समझकर उसे अपने पुत्र को सौंपकर, राजा पापों का संवरण कर उसी क्षण दिगम्बर मुनि हो गया।
घत्ता-सम्मेदशिखर जाते हुए, यह और उसके साथ ही एक समर्थ सार्थवाह सल्लकीवन में पहुंचे।
(i) 1. A कारगियरत्त । 2. A ता एत्तहे। 3. A त्रिणवर। 1. AP जइबइ। 5. A तहो । . A पवियांपनि। 7. सुमत्यु। 8. A सत्यवादि ।