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101.5.12]
पहाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु
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घत्ता-इह देसि पसण्णि सेणिय राय तुहारइ। मणितोरणदारु सुप्पइछु पुरु सारइ ॥4॥
(5) तहिं णिवसइ सिरिजयसेणु राउ वणि सायरक्खु पहयरिसहाउ । सुउ ताहं पहूयउ णायदत्तु अण्णेक्कु वि बालु कुबेरदत्तु । गहियई सयहिं सावयवयाई णवियाई पंचदेवहं पयाई। दप्पेण पमाएण ब' पमत्तु पर धम्मु ण गिण्हइ णायदत्तु । कालें जंतें सुरहियदियंति सदलि धरणीभूसणवर्णति। मुणि सायरसेणु पराइएहि जयकारिउ जयसेणाइएहिं। पुच्छिउ स धम्मु तेणुत्तु एव जिणधम्में होंति महदि देव। तित्थंकर चारण चक्कवट्टि पडिवासुदेव खलमइयवट्टि। जिणधम्में मोक्खहु जति जीव मिच्छत्तें णरइ पति पाव । आयण्णियि हाई लइड पम्प
यत्तु मि.फम्म। घत्ता-मुणिवरु वंदेवि मिच्छामलपरिचत्तें।
णियआउपमाणु पुच्छिउ सायरदत्तें ॥5॥
घत्ता-हे श्रेणिक ! तुम्हारे इस प्रसन्न (खुशहाल) श्रेष्ठ देश में मणि के तोरणद्वारवाला सुप्रतिष्ठ नगर
[5) उसमें श्री जयसेन नाम का राजा निवास करता था। सागरदत्त नाम का सेठ था और प्रभाकरी सेठानी, उसकी सहायिका (सहधर्मिणी) थी। उन दोनों का पुत्र नागदत्त था। एक और दूसरा बालक कुबेरदत्त था। उन सबने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये और पाँचों देवों के चरणों को प्रणाम किया। घमण्ड से या प्रमाद से प्रमत्त नागदत्त ने धर्म ग्रहण नहीं किया। समय बीतने पर, जिसमें दिशाएँ सुरभित हैं ऐसे सुन्दर पत्तोंवाले धरणीभूषण वन में पहुँचकर सागरदत्तादि ने मुनि सागरसेन का जय-जयकार किया। उनसे धर्म पूछा। उन्होंने इस प्रकार कहा-"जिनधर्म से महाऋद्धि-सम्पन्न देव होते हैं, तीर्थंकर, चारण मनि, चक्रवर्ती, क्षेत्र की मिट्टी का मर्दन करनेवाले काष्ठ के समान प्रतिवासुदेव होते हैं। जिनधर्म से जीव मोक्ष जाता है। पापी मिथ्यात्व से नरक में पड़ते हैं।" सुनकर उन्होंने यह धर्म स्वीकार कर लिया और लोगों ने हिंसादि कर्मों का परित्याग कर दिया।
घत्ता-मिथ्यात्व-मल से रहित सागरदत्त ने मुनिवर की वन्दना कर अपनी आयु का प्रमाण पूछा।
5.
दारे । 6. AP सुपरपुरे। (5) 1. AP वि। 2. AP सुधम्मु।