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________________ 96 । महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [85.15.3 कामधेणु णं सई अवइण्णी गलियथण्णथणि जणणि णिसण्णी। जाव ण पिसुणु को वि उवलक्खइ' ता तहिं संकरिसणु सई अक्खइ। सुललियंगि भुक्खासमरीणी उववासेण पमुच्छिय राणी। तेणिय भणियि भुएहिं समस्थित दुद्धकलसु देविहि पल्हत्थिउ। हरि' जोडाये णीवंताह णयहिं मणि आणंदु पाँच्चउ सयणहिं। सबलाहणमिसेण' संफासिवि आउच्छणमिसेण संभासिवि। भायणाई होइवि" संतोसह गयई ताई महुराउरिवासहु। कालें जंतें छज्जइ पत्तउ __ आसाढागमि वासारत्तउ। घत्ता-हरियउं पीयलउं दीसइ जणेण तं सुरधणु। खरि पओहरहं णं णहलच्छिहि उप्परियणु ॥15॥ (16) दुवई-दिठ्ठउं इंदचाउ पुणु पुणु मई' पंधियहिययभेयहो। घणवारणपवेसि- णं मंगलतोरण णहणिकेयहो ॥ छ ॥ जलु गलइ झलझलइ। दरि भरड सरि सरइ। तडयइइ तडि पडइ। गिरि फुडइ सिहि णइइ मरु चलइ तरु घुलइ। से माँ बैठी हुई थी। जब तक कोई दुष्ट पुरुष न देख ले, तब तक वहाँ बलभद्र स्वयं कहते हैं-"भूख के श्रम से क्षीण सुन्दर अंगोंवाली यह रानी उपवास के कारण मूच्छित हो गयी है।" उसने यह कहकर उठा हुआ दुग्ध-कलश देवी के ऊपर उड़ेल दिया। अपने गीले नेत्रों से हरि को देखकर स्वजन मन में आनन्द से नाच उठे। विलेपन के छल से स्पर्श कर, पछने के बहाने बात कर, और सन्तोष के भाजन बनकर वे लोग मथुरा नगरी के अपने निवास के लिए चले गये। समय बीतने पर असाढ़ के आगमन पर प्राप्त वर्षा ऋतु शोभित हो उठती है। ___घत्ता-मेघों के ऊपर लोगों को हरा और पीला इन्द्रधनुष ऐसा दिखाई देता है, मानो नभरूपी लक्ष्मी के ऊपर का आवरण (दुपट्टा) हो। (16) ____ मैं बार-बार इन्द्रधनुष को देखता हूँ, मानो पथिकों के हृदयों का भेदन करनेवाले आकाशरूपी घर में मेघरूपी महागज के प्रवेश के लिए मंगल तोरण हो। जल गिरता है, झलझलाता है। घाटी भरती है, नदी बहती है, तड़तड़कर बिजली गिरती है, पहाड़ फूटता है, मोर नाचता है, हवा चलती है, पेड़ हिलता है। 8. Hघण्णलिं 4. B ओलाखद । 5. Aति इय भगेवि तें इस मणेथि। 6. BAS. समुस्विछ।7.Aomits this line. ४. BS जोयवि। ५. A units Ra10. A भोवणाई। 11. "होचचि। 12. APS जण सुरतरण। (16) 1. AP अइपंधिय। 2.5 घस वारण | 3A तडककइ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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