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________________ 10 82.15.8] महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु [33 'कोल्लिकयलिककोलिघणि सुपियंगुडेि' मृगचंडवणि" । गुरु मंदिरथविरु' समेहरहु धणयत्तु वि णासियमोहगहु । गय तिण्णि वि सासवसिवपयहु मुक्का जरमरणरोयभय"। ते सिद्धा सिद्धसिलायलइ धणदेवाइ वि तेत्थु जि णिलइ। घत्ता-थिय अणसणि विणयायर महिणिहित्ततणु भायर । सहुं जणणिइ सहुं बहिणिहिं जोइयजिणगुणकुहणिहि ॥14॥ ( 15 ) पिदेशा मुभवोहबग संणासणि' चिंतइ णंदजस । जइ अस्थि किं पि फलु रिसिहि तवि ए तणुरुह तो आगामिभवि। एयर धीयउ महुँ होंतु तिह विच्छोउ ण पुणरवि होइ जिह। कइवयदियहहिं सब्वइ मयई तेरहमउ सग्गु णवर गवई। सायंकरि सुरहरि अच्छियई सुरवरकोडीहिं 'समिच्छियई। तहिं वीससमुद्दई भुत्तु सुह णिवडतहुं ओहुल्लियां मुई। हूई' णंदयस सुहद्द तुह गेहिणि परियाणहि चंदमुह। धणदेवपमुह जे पीणभुव इह ते समुद्दविजयाई सुय। कर ली। अशोक, कदली (केला) और कंकोल वृक्षों से सघन एवं पशुओं से प्रचण्ड प्रियंगुखण्ड वन में मेघरथ के साथ गुरु, मन्दिर-स्थविर और सेठ धनदत्त तीनों मोहरूपी ग्रह का नाश कर, शाश्वत शिवपद के लिए चले गये तथा जरामरणरूपी रोग के भय से वे होकर और सिद्धशिला में सिद्ध हो गये। धनदेव वगैरह उसी के घर में स्थित थे। ___घत्ता-अपनी माँ, और जिनवर के गुणों के मार्ग को खोजती हुई दोनों बहिनों के साथ, धरती पर अपने शरीर को समर्पित करनेवाले, बिनय के समूह वे भाई अनशन में स्थित हो गये। अपने शरीर से उत्पन्न पुत्रों के स्नेह के कारण संन्यासिनी नन्दयशा सोचती है-'यदि ऋषियों के इस तप का कुछ भी फल है, तो आगामी जन्म में ये फिर पुत्र हों और ये कन्याएँ भी इसी प्रकार हों कि जिससे उनका फिर से वियोग न हो।' कुछ ही दिनों में सब मृत्यु को प्राप्त हो गये और तेरहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ शान्तकर विमान में करोड़ों देवों द्वारा चाहे गये बाईस सागर (समय प्रमाण) तक सुख भोग करने के बाद, च्युत होते समय, उनका मुख म्लान हो गया। नन्दयशा तुम्हारी सुभद्रा हुई, उसे तुम अपनी चन्द्रमुखी गृहिणी समझो। और जो स्थूलभुज धनदेव प्रमुख पुत्र थे, वे ये समुद्रविजय आदि पुत्र हैं। 7. B किकिल्लि । ४.Aकक्फत" । "कोल्त कक्कोलि 19. Bखंहि। 10. AP मिगचंद": । 'चंदु। ।।. RP मंदिरु। 12. APS घणदत्तु: B धणयत्त। 13. B"भरहो। 4. Bअसण। 11. जणणिहे। 16. APS 'कुहिणिहिं। (15) I.Aआण्णाणि णियच्छड़ गांट: । अण्णाणिणि पत्यद णद. A भव्यई। 3.5 सग्ग। 4. PS °कोडिहिं। 5. सम्मठियई। 6. P ओहल्लियां। 7. हुइ। *. P सुभद।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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