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________________ 310 । महाकइपुप्फवंतविरयड महापुराणु 196.5.8 उवसग्ग परीसह सयल सहइ परमत्थसत्थवयणाई कहइ। णिच्चं पि पउंजइ णाणजोउ सईसणु पोसइ 'सहइ सोउ। रिसिसंघहु वेज्जावच्यु करइ मिच्छामूढहं मिच्छत्तु हरइ। जे मग्गभट्ट ते मग्गि ठवइ विणएण पंचपरमेट्टि णवइ। आहारु देहु मेल्लिवि मुणिंदु मुउ अंतरालि" सुमरिवि जिणिंदु । णियकायकतिणिज्जियारुणिंदु अच्चुइ संजायउ सुरवरिंदु। बावीससमुद्दोवमचिराउ पंडुरु रयणित्तयतुंगकाउ । यत्ता-अइसुहमु मणेणd चोलीणहिं बावीसहिं। भुंजइ आहारु सुरहिउ वरिससहासहिं ॥5॥ दुवई-धुवणीसासु' मुयइ सो तेत्तिवपक्खहिं दुहविहंजणो । जाणइ ताम जाम छट्ठावणि वड्डियओहिंदसणो ॥छ॥ परमागमसाहियदिव्यमाणि णिवसंतह पुप्फुत्तरविमाणि। जइयई वट्टइ' छम्मासु तासु परमाउमाउ परमेसरासु। तइयर्ड सोहम्मसुराहियेण पणिउ कुबेरु इच्छियसिवेण।। इह जंबुदीवि भरहंतरालि रवणीयविसई सोहाविसालि। हंसते हैं। समस्त उपसर्ग और परीषह सहन करते हैं। परमार्थ और सत्य वचन कहते हैं। नित्य ज्ञानयोग का प्रयोग करते हैं। सदर्शन का पोषण करते हैं, शोक को सहते हैं। मुनिसंघ की वैयावृत्य करते हैं। मिथ्यात्व में मोहित मूटों का मिथ्यात्व दूर करते हैं। जो मार्ग से भ्रष्ट हैं, उन्हें मार्ग पर लाते हैं। पंचपरमेष्ठी को विनय के साथ प्रणाम करते हैं। वह मुनीन्द्र आहार और देह को छोड़कर तथा मन में जिनेन्द्र का स्मरण कर मृत्यु को प्राप्त हुए और अच्युत स्वर्ग में अपने शरीर की कान्ति से पूर्ण चन्द्र को जीतनेवाले सुरेन्द्र हुए। उनकी आयु बाईस सागर प्रमाण थी। तीन हाथ ऊँची सफेद काया थी। ___घत्ता-बाईस हजार वर्ष बीत जाने पर (एक बार) मन से अत्यन्त सूक्ष्म सुरभित आहार ग्रहण करते हैं। (6) दुःख का नाश करनेवाले वह, उतने ही पक्षों में अर्थात् बाईसपक्ष में साँस लेते हैं। अपनी बढ़ी हुई अवधिज्ञानरूपी आँख से वहाँ तक जानते है जहाँ तक छठे नरक की भूमि है। परमशास्त्रों में कहे गये दिव्यमानवाले पुष्योत्तर विमान में रहते हुए जब उन परमेश्वर की परमआयु के मात्र छह माह शेष रहे, तब कल्याण चाहनेवाले सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने कुबेर से कहा-"इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धूल से रहित, शोभा से विशाल कुण्डपुर में कल्याणकारी राजा सिद्धार्थ है, जो श्रीधर (विष्णु) होते हुए, याचक के वामनरूप से रहित है (मग्गणवेसरहिउ); 6. Anadsaas hind Aasa.T.AP समद। 4. AP जंतयालि। 9.A रयणितिय":K स्यणत्तय। 10. AP खणेण। (6) 1. A धुर । 2. A"विहंसणीः विहसंणे। 3. सणे। 4. P बहुद्द। 5. AP "माणु। 6. A रमणीय।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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