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मुक्का जेण खमावई रइया जो विमहाबई
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महाकइपुष्यंतविरयउ महापुराणु
तिणवदिम संधि
पणवेपि पासु णियसुकइतु' पयासमि। गासियपसुपासु तासु जि चरिचं समासमि ॥ ध्रुवकं ॥
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सुरहियदिचक्काणणं सोढुं खरकिरणावयं
मोत्तुं जो गिरिधीरओ जस्स रिऊ असुरो अही जो दोहं पि समंजसो
गाणं जस्सुप्पण्णयं गाविसहया
जस्स गया पोमावई एक्कवायचप्पियरसा
तवसासस्स खमावई । संजाओ पमहावई ।
जो संपतो कापणं ।
"सवउं पि हु किर णायवं ।
थि उवसमधीरओ । उववारी सुयणो अही । "बुढो जेण समं जसी । खुहियणरामरपण्यं । पाइंदाणी विसहिया । भुवणत्तयपोमावई । 'अमुणियं परमागमरसा ।
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तिरानवेवीं सन्धि
पार्श्व जिन को प्रणाम कर, मैं अपना सुकवित्व प्रकाशित करता हूँ और उन्हीं का चरित प्रकाशित करता
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जिन्होंने पृथ्वीपतियों को छोड़ दिया है, जो तपरूपी धान्य के लिए बाड़ लगानेवाले हैं, जो महापद से रहित होकर महाव्रती हुए हैं, जिनका दिक्चक्ररूपी आनन सुरभित है, ऐसे कानून में वे पहुँचे। प्रखर सूर्य की भी आपदा को सहन करने के लिए उनका अपना शरीर भी व्रत अनुष्ठानादि न्याय का पालन करनेवाला था। गिरि के समान धीर जो मुक्ति के लिए उपशम से धीर होकर बैठ गये। अहो ! असुर (बुद्धिहीन कमठ) जिनका शत्रु है और अहि (नागराज) मित्र हैं, जो दोनों में ही सामंजस्य रखते हैं, जिनका यश और समता भाव समान रूप से बढ़ा हुआ है, जिनको नरों, अमरों और नागों को क्षुब्ध करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हैं, जिन्होंने उपसर्गों को सहन किया है, नागेन्द्राणी भी ( जिनसे ) धर्मरत हुई, भुवनत्रय में प्रशंसनीय पद्मावती जिनके लिए नत है, (तथा) जिन्होंने एक पैर से धरती को चाँप रखा है और जो परमागमशास्त्र के रस
(1) 1. गियसुक । णिययकइतु। 2. गासियनसु 3. APT किरणाथ 4 A सवओ P सुबउं 5. APP . A बूढो P रूढो बूढो । 7. A एकपाय" ।