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________________ 126 | महाकइपुष्फयंतबिश्य महापुराणु [87.8.14 घत्ता-भूसणदित्तिविसालु णावई तारायणु थक्कउँ । __जायवणाहें तेत्थु सायरतडि सिबिरु'' विमुक्कउं ॥8॥ 15 5 दुवई-खंचिय रह तुरंग मायंगोयारियसारिमारया। खंभि णिवद्ध के वि गय के वि कराहयभूरिभूरया ॥छ॥ णियसंताबयारिरविसयणई उम्मूलंति के वि करि पलिणइं। केण वि पंकु सरीरि णिहित्तउ सीयलु मइलु बिलेवणु' थक्कउ। दाणबिंदुचंदियचित्तलजलु दीसइ काणणु चूरियदुमदलु' । मुक्कई खलिणई मणिपरियाणइं। तुरयह भडहं विविहतणुताणइं। थाणुणिबद्धई तवसिउलाई व गुणपसरियई सुधम्मफलाई व। उब्भियाई दूसई बहुवण्णइं चलियचिंध मंडवि वित्थिण्णई। कइवय दियह तेत्यु णिवसंतह गय दुग्गमपएस'५ जोयंतह। पुणु अण्णहि दिणि मंतु समस्थित गुरुयणेण माहउ' अब्मस्थिउ । हरि तुहं पुण्णवंतु जं इच्छहि तं जि होइ णिवसत्ति" णियच्छहि। 10 पत्ता-यादवनाथ ने उस सागर-तट पर अपने शिविर ठहरा दिये। भूषणों की दीप्ति से विशाल वह ऐसे लगते थे, जैसे तारागण आकर ठहर गये हों। (9) रथ और तुरंग तथा जिनसे पर्याणों का भार उतार लिया गया है ऐसे महागज ठहरा दिये गये। कितने ही गज खम्भों से बाँध दिये गये। कितने ही गज अपनी सूंड़ों से धूल उड़ा रहे थे। कोई गज अपने राजा के लिए सन्ताप देनेवाले सूर्य के स्वजन कमलों को उखाड़ रहे थे। किसी ने कीचड़ अपने शरीर पर डाल ली, मानो शीतल कीचड़ का विलेपन उसके शरीर पर स्थित हो। मदजल की बूंदोंरूपी चन्द्रिका से जल चित्रित दिखाई देता है और कानन ऐसा दिखाई देता है, जैसे उसके द्रुमदल चूर-चूर हो गये हों। अश्वों के लगाम और मणियों के जीन तथा भटों के शरीरों से विविध कवच उतार दिये गये। रंग-बिरंगे तम्बू तान दिये गये, जो तपस्वियों के कुल के समान थान पर बैंधे (स्थाणु-खूटा, स्थान से बँधे हुए) थे, जो सुधर्म के फल की तरह गुणों (डोरी, दयादि गुणों) से प्रसारित थे, जो चंचल पताकाएँ बाँधकर मानो फैला दिये गये थे। वहाँ रहते हुए और उस दुर्गम प्रदेश को देखते हुए उनके कई दिन बीत गये। दूसरे एक दिन उन्होंने मन्त्रणा की याचना की। गुरुजन ने माधव से अभ्यर्थना की "हे हरि ! तुम पुण्यवान हो, जो चाहते हो वही होगा। अपनी शक्ति-सामर्थ्य को देखें। तुम ऐसा करो 13.6 स्तिमिरु। (9) 1. Bोत्तारिय" | 2, 5 खंभ।..A के वि करहाहिय बसह वि भूरिमारवा; BPS कराहिय । 4. AP णिव 15. APS केहि मि। 6. AP सीयलु णाई विलेवणु घित्तई। 7. B विलेपणु। B. A"योदय । 9. AP लूरिया। 10. B"भंग। 11. A पंड्य'। 12. APS एवेसु। 13. 5मास्यु। 14. A णियसति।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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