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87.10.101
महाकइपुण्फयंतबिरयउ महापुराणु
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तिह करि जिह रयणायरपाणिउं देइ मग्गु मयरोहरमाणिउं। णिरसणु अट्ट दियह मलणासणि ता रक्खसरिउ घिउ दमासणि। णइगमु अमरु णिसिहि संपत्तउ हरिवेसें हरि तेण पवुत्तउ। घत्ता-आउ जिणिंदु णवेवि जणियतायजयतुहिहि । माहब" चिंतहि काई चडु महु तणियहि पुट्टिहि ॥७॥
(10) दुवई-ता हय गमणभेरि कउ कलयलु लंघियदसदिसामरे।
मणिपल्लाणपट्टचलचामरि' चडिउ उविंदु हयवरे ॥छ।। चवलतुरंगतरंगणिरंतरि
तुरउ पइठ्ठ समुद्दब्मंतरि। हरिवरगइमज्जायइ धरियउं पाणिउं बिहिं भाइहिं ओसरिठ। तहु अण्णुगों लाहणु चल्लिर इरादतकारवटरिमामोल्लिां '। थियउं सेण्णु सुरणिम्मिइ गयमलि वेसादप्पणसंणिहि महियलि। भवसंसरणदुक्खदुक्खियहरि बावीसमु समुद्दविजयहु घरि। तित्थंकर सिवदेविहि होसइ छम्मासहिं सुरणाहु पघोसइ। एयहं दोहिं मि पंकयणेत्तहं वणि णिवसंतह वहुवरइत्तहं। जक्खराय तुहु करि पुरु भल्लउं चित्तजयंतिपंतिसोहिल्लउँ ।
कि जिससे मत्स्यों से मान्य समुद्र का जल रास्ता दे दे। तब राक्षसों के शत्रु हरि, पापनाशक दर्भासन पर आठ दिन तक निराहार बैठे। रात्रि में निगम नाम का अमर आया और अश्व के रूप में वह हरि से बोला
पत्ता-जिनेन्द्र को नमस्कार करके आओ और पीड़ित विश्व को सन्तुष्ट करनेवाली मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। हे हरि, तुम चिन्ता क्यों करते हो।
(10) तब युद्ध के नगाड़े बजा दिये गये, कोलाहल होने लगा, मणिमय पर्याण-पट्ट और चंचल चामरों से युक्त, दसों दिशाओं को लाँघनेवाले अश्व पर उपेन्द्र (हरि) आरूढ़ हो गये। चंचल तुरंग की तरह तुंग तरंगों से परिपूर्ण समुद्र के भीतर अश्व चला। अश्ववर की गति की मर्यादा से गृहीत उसका पानी दो भागों में हट गया। उसके (अश्व के) पीछे-पीछे सेना चल दी, बजते हुए नगाड़ों के शब्दों और हर्ष-ध्वनियों से रसाई, देवों से निर्मित, मल से रहित, वेश्या के दर्पण के समान स्वच्छ महीतल पर सेना ठहर गयी। देवेन्द्र घोषित करता है कि संसार के भ्रमण के दुःख से दुःखितों को धारण करनेवाले समुद्रविजय के घर में शिवादेवी से छह माह में बाईसवें तीर्थंकर होंगे। अतः हे कुबेर ! तुम वन में निवास करनेवाले कमलनयन इन दोनों बन्धुवरों के लिए चित्रित ध्वजपंक्तियों से शोभित एक सुन्दर नगर की रचना कर दो।
th. AP "यरवाणिउं115. AP जणियजयत्तयतुद्भिः। 17.5 माहज। 18. B तणिहिं।
(10) I. P"पहे। 2.4 चंचल तुरउ तरंग":" चलतरंगरंगसणिरंतरि। 3. APS पायाहिं। 4. Pढयकारए हरिस 15. A दुक्किय । 6. AP करि