________________
1281
[87.10.11
महाकइपुप्फयंतविरयउ पहापुराणु घत्ता--झत्ति पसाउ भणेवि गल पेसिउ सहसरखें। पुरि परिहाजलदुग्ग कय दारावइ जक्खें |॥10॥
(11) दुवई-कच्छारामसीमणंदणवणफुल्लियफलियतरुवरा।
सोहइ' पंचवण्णचलचिंहिं दूरोरुद्धरवियरा ॥छ। धरई सत्तभउमई मणिरंगई रयणसिहरपरिहठ्ठपयंगई। पंगणाई माणिक्कणिबद्ध
तोरणाडं मरगयदलणिद्धई। जलई सकमलई थलई ससासई माणुसाई पालियपरिहासइं। कुंकुमपंकु धूलि कप्पू
पउ धुप्पइ ससिकतहु णीरें। महुयर रुणुरुणंति महु थिप्पड़ परहुय' वासइ पूसउ कुप्पइ। कह कहंतु जायउ रसु खंचइ कलमकणिसु एमेव विलुंचइ। कुसुमरेणु पिंगलु णहि' दीसइ कालायरुधूमउ दिस भूसइ। बेण्णि वि णं संझाषण णवघण जहिं दुहु णउ मुगति णायरजण। जहिं जिणहरई वरइं रमणीयई वीणावंसविलासिणिगेयई। यत्ता-तहि सभवणि सुत्ताए रयणिहि दुक्कियहारिणि ।
दिली सिविणयपति सिवदेविइ सिवकारिणि ॥॥
10
घत्ता-देवेन्द्र द्वारा प्रेषित कुबेर 'जो प्रसाद' यह कहकर शीघ्र गया और उसने परिखा तथा जलदुर्ग से युक्त द्वारावती की रचना कर दी।
(11) गृहवाटिकाओं, उद्यानों, सीमाओं, नन्दनवनों और फूले-फले तरुवरों से युक्त और रविकिरणों को दूर से रोक देनेवाली वह नगरी पचरंगी चंचल ध्वजों से शोभित है। उसमें सातभूमियों, मणिमण्डपों और रत्नशिखरों से सूर्य को घर्षित करनेवाले घर हैं। माणिक्यों से विरचित प्रांगण हैं। मरकतदल से रचित तोरण हैं। कमलों सहित जल और धान्यों सहित स्थल हैं। परिहास करनेवाले मनुष्य हैं। जहाँ केशर की कीचड़ है और कपूर की धूल है, जहाँ चन्द्रकान्त मणि के जल से पैर धोये जाते हैं। भ्रमर गुनगुनाते हैं, मधु झरता है। कोयल शब्द करती है, तोता क्रोध करता है, कथा कहते-कहते रस में मग्न हो जाता है, और धान्य के कणों को यों ही लोचता है। पीली कुसुमधूल आकाश में दिखाई देती है। कालागुरु का धुऔं दिशाओं को शोभित करता है। दोनों (पुष्परज
और अगुरुधूम) ऐसे लगते हैं, मानो सन्ध्यावन और नवघन हों। जहाँ नागरजनों को किसी प्रकार का दुःख नहीं है, जहाँ विशाल और रमणीय जिनमन्दिर हैं, वीणा, बाँसुरी और विलासिनियों के गीत हैं,
पत्ता-ऐसी उस नगरी में अपने भवन में रात्रि में सोती हुई शिवादेवी ने पापों का हरण करनेवाली कल्याणमयी स्वप्न-पंक्ति देखी।
(11) 1. B सोहिय। 2. भवणि।
भोपई। १. १ पंगणाई । 4. पंक। 5. A ससियंतहो। 6. BS परहुव । 7. APणछ। 8. Pणीयई। 9. AB तहिं जि