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महाकइपुप्फयंतविरवउ मरम्परा
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जीव म हिंसहि अलिउ म बोल्लहि करयलु परहणि कहिँ मि म घल्लाह। पररमणिहि मुहकमलु म जोयहि थणमंडलि करपत्तु म ढोयहि । को वि म जिंदहि दूसिउ दोसें संगपमाणु करहि संतोसें। पंचुंबरमहुपाणणिवायणु' रयणीभोयणु दुक्खहं भायणु। वाह विवज्जहि मणि पडिवज्जहि णिच्चमेव जिणु भत्तिइ पुज्जहि । तं णिसुणेवि मणुयगुणणासहं लइय णिवित्ति तेण महुमासहं । घत्ता-हुल जीवदयावरु सवरु णिरक्खरु लग्गउ जिणवरधम्मइ।
मुउ कालें जंतें गिलिउ कयंतें उप्पण्णउ सोहम्मइ |3|
तेत्थु सु दिव्य भोय भुजेप्पिणु एत्थु विजलि भारहवरिसंतरि णंदणवणवरहीरवरम्महि कणयविणिम्मियमणिमयहम्महि सुरतरुपल्लवतोरणदारहि धूवधूमकजलियगवक्खहि उज्झाणयारहि पर्यायसुरवा
एक्कु समुद्दोवमु जीवेप्पिण। कोसलविसइ सुसासणिरतरि। 'परिहासलिलवलयअविगम्महि । णायरणरविरइयसुहकम्महि । वण्णविचित्तसत्तपायारहि। 'भूमिभायरंजियसहसक्खहि। · होतउ रिसहणाहु चिरु गरवइ ।
हो । जीव की हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरे के धन पर कभी भी अपनी हथेली मत लगाओ, परस्त्री का मुखकमल कभी मत देखो और न ही स्तनमण्डल पर हाथ ले जाओ। दोष से दूषित किसी की भी निन्दा मत करो। सन्तोष से संग्रह का परिमाण करो। पाँच उदुम्बर फल और मधुपान का त्याग करो। रात्रि-भोजन दुःख का भाजन है। हे व्याध ! उसे छोड़ो, मन में यह स्वीकार करो। तुम नित्य जिन (भगवान्) की भक्ति से पूजा करो।" यह सुनकर उस भील ने मनुष्य के गुणों का नाश करनेवाले मधु-मांस से निवृत्ति ले ली।
घत्ता-वह भील जीवदयावर हो गया। वह निरक्षर भील जिनधर्म में लग गया। समय आने पर यम के दारा निगला गया, मर गया और सीधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।
वहाँ दिव्य भोग भोगकर, एक सागर प्रमाण जीवित रहकर, विशाल भारतवर्ष के भीतर निरन्तर सुशासनवाले कोशल देश में, अयोध्या नगरी में, जो नन्दनवन और कोयल के शब्दों से सुरम्य, परिखा के सलिलवलय से अगम्य, स्वर्णनिर्मित एवं मणिमय प्रासादों और शुभकर्म करनेवाले नागरनरों से युक्त, कल्पवृक्ष के पल्लव तोरण-द्धारों और रंगों से विचित्र सात प्राकारोंवाली, धूप के धुएँ से हुए काले गवाक्षों से युक्त और भूमिभागों से इन्द्र को रंजित करनेवाली है, प्रथम इन्द्र के द्वारा प्रवर्तित उस नगरी में ऋषभनाथ राजा हुए थे, जो प्रबिमल
1. A "पाणपलासणु।
(4) 1. AP "वरिहीरव। 2. AP-वलयसलिल । 3. AP घणयः। 4. AP भोभोवांजिय।