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महाकपुप्फयंतविरय महापुराणु
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[92.12.1
लइ जलु महुमह मुहुं' पक्खालहि । उ उट्टि किं भूमिहि सुत्तउ | णिरु तिसिओ सि पियहि तुहुं पाणिउं । मई णिज्जणि वणि किं अवहेरहि । चिंता केहि सोहि ।
उडि उडि अप्पाणु गिहालिहि दामोयर धूलीइ विलित्तउ उडि उडि केसव मई आणिउं उट्टि उट्टि सिरिहर साहारहि उडि उडि हरि पोलावहि पूयणमंथण' सयडविमद्दण विमणु म थक्कहि देव जगण | इंदु वि बुड्ढ तुह असिवरजलि अज्ज' वि तुहुं जि राउ धरणीयलि । इज्झउ पुरि विहडउ तं परियणु अंतरु णास वियलउ धणु । भाइ धरत्तिदित्ति उप्पायन खुड्डु तुहुं एक्कु होहि नारायण । जहिं तुहुं तहिं सिरि अवसें णिवसइ जहिं ससि तहिं किं जोह ण विलसइ । उडि उट्टि भद्दिय जाइज्जइ किं किर गिरिकंदरि णिवसिज्जइ । किं ण मज्झु करयलि करु ढोयहि किं रुट्टो सि बप्प णउ जोवहि । घत्ता - उट्ठाविवि सुइरु सबंधवेण हरिहि अंगु परिमट्टउं । aणविवर होंत रुहिरजलु ताम गलंतउं दिट्ठउं ||12||
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उठो, उठो, अपने को देखो। हे माधव ! पानी लो और अपना मुँह धो लो । हे दामोदर ! तुम धूल-धूसरित हो रहे हो । उठो, उठो, तुम भूमि पर क्यों सो रहे हो ? उठो ओ, केशव मैं ले आया हूँ। तुम अत्यन्त प्यासे हो, लो यह पानी पिओ । हे श्रीधर (कृष्ण) उठी, उठी, मुझे सहारा दो। इस निर्जन वन में मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हो ? हे हरि ! उठो, उठो, मुझसे बात करो । चिन्ता से व्याकुल होकर तुम कितना सो रहे हो ? पूतना का नाश करनेवाले, शकटासुर के नाशक, हे देव जनार्दन ! तुम उन्मन मत रहो। तुम्हारी तलवार के जल में इन्द्र भी डूब जाता है। आज भी तुम धरती के राजा हो । नगरी जल जाये, परिजन नष्ट हो जाये, अन्तपुर मिट जाये, धन नष्ट हो जाये, परन्तु धरती की दीप्ति को उत्पन्न करनेवाले हे भाई नारायण ! तुम अकेले बने रहो । जहाँ तुम हो, वहाँ लक्ष्मी अवश्य निवास करेगी । जहाँ चन्द्रमा है, वहाँ क्या ज्योत्स्ना नहीं शोभित होगी ? हे भद्र ! उठो, उठो, चला जाये, पहाड़ की गुफा में कैसे रहा जाएगा ? मेरे हाथ में हाथ क्यों नहीं देते ? तुम क्यों रूठ गये हो ? हे सुभट ! मुझे नहीं देखते ?"
घत्ता - बहुत समय तक उठाकर भाई ( बलभद्र ) ने कृष्ण के शरीर को छुआ तो उसे घाव के छेद से बहता हुआ खून दिखाई दिया।
10. BIAP भलें 12. S जी 13. P णरए 14. P भुषणे। 15. APS पडिआएं। 16. 5 माहषु ।
(12) 15 भुरु 2. P3. Ale. अज्जेवि BS अणि थि। 4. APS "परिभि 3. A सिथिति। 6. उपाय। 7. P नारायणु । M. APS जोमा।