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महाकमुष्फयतविरकट महापुरागु
199.5.6
गोवालपुत्ति बालें विवर्ल्ड परिणाविउ वणिसुउ दियड्दु । इह भरहखेति खयरायलिदि णहवल्लहपुरि फुल्लारविंदि। णवराहिउ णामें गरुलवेउ
सो दाइज्जेहिं णिरत्यतेउ। थिउ रयणदीवि रमणीयणयरु अप्प करेवि संपण्णखयरु। पिय धारिणि तहु संपुषणगत्त मुर पकनोलण गंधदत्त ! एक्काहिं दिणि पोसहखीणदेह पडिवयदिवहे णं चंदरेह। दिट्ठी ताएं जिणसेस देंति थणभारें णं भज्जिवि णवंति। भासइ पिउ सुंदरि देमि कासु ता भणइ मंति लद्धावयासु। मई मंदरि दिट्ठउ अरुहगेहि चारणमुणि णिण्णेहउ सदेहि। सो पुच्छिउ पुत्तिहि वर्स' वि कवणु जइ भासइ जो मायंगगमणु। जीवंधरु सच्चंधरहु सूणु
रायउरणाहु बुद्धिइ अणूणु। सो होसइ वरु धारिणिसुयाहि । वेल्लहलवेल्लिसुललियभुयाहि। ता पुच्छइ पहु संजोउ केव वज्जरइ मंति भो णिसुणि देव । रायउरइ वणिवइ बसहदत्तु पोमावई णामें तहु कलत्तु। णंदणु जिणदत्तु महाणुभाउ सो कन्जु करेसइ तुह सराउ । घत्ता-उज्जाणसमिद्धई महिरुहरिद्धइ णियतणएण विराइउ ।।
उप्पाइयणाणहु सायरसेणहु वंदणहत्तिइ आइउ' ॥5॥
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गोपालपुत्री उसे दे दी। उस बालक ने वणिकपुत्र विदग्ध नन्दाय का उससे विवाह करवा दिया। इस भरतक्षेत्र के विजया पर्वत में खिले हुए कमलों से युक्त नववल्लभपुरी है। उसमें राजा गरुड़-वेग नाम का विद्याधर था। उसके भागीदारों ने उसके तेज को व्यर्थ कर दिया था। रत्नद्वीप में खुद सुन्दर नगर बनाकर वह सम्पन्न विद्याधर वहाँ रहने लगा। उसकी पत्नी प्रियधारिणी थी। उसकी सम्पूर्ण शरीरवाली नवयुवती गन्धर्वदत्ता नाम की कन्या थी। एक दिन उपवास से क्षीणदेह उसे जिनपूजा की शेषमाला देते हुए पिता ने देखा मानो प्रतिपदा की चन्द्ररेखा हो। स्तनभार से मानो वह भग्न होकर झुक गयी थी। पिता कहता है कि मैं यह सुन्दरी किसे दूँ ? तब अवसर पाकर मन्त्री कहता है कि मैंने भगवान अर्हन्त के मन्दिर में एक चारण मुनि को देखा था जो मूर्तमान वीतराग थे। उनसे मैंने पूछा था कि कुमारी के लिए कौन वर होगा ? यति ने बताया कि गजगामी सत्यन्धर का पुत्र राजनगर का स्वामी, अन्यून (बहुत) बुद्धिवाला जो जीवन्धर स्वामी है, वह बेल फल की लता के समान सुन्दर भुजावाली धारिणी की पुत्री का वर होगा। राजा पूछता है कि संयोग किस प्रकार होगा ? मन्त्री कहता है-“हे देव ! सनिए। राजपुर में वृषभदत्त नाम का सेठ है। उसकी पदमावती नाम की पत्नी है। उसका महानभाव पत्र जिनदत्त है। स्नेही वह तुम्हारा काम करेगा।" ।
घत्ता-उद्यान की समृद्धि, वृक्षों की ऋद्धि एवं अपने पुत्र से शोभित वह (वृषभदत्त) जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है, ऐसे सागरसेन महामुनि की वन्दनाभक्ति करने के लिए आया ।
3. AP गरुहोउ। 1. AP दायजेहिं । 5. AP अप्पण। 6. A एय। 7. AP कमणु रमणु। B. AP उज्जाणि। 9. AP आयउ।