SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 198 ] महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु 190.11.7 10 वितरसुरि' खयरायलि हुई दससहसदहं भुत्तविहूई। भवविब्ममि भमेवि इह दीवइ भरहखेत्ति पुणु सामरिगामई। यक्खही हलियह रइरसवाहिणि देवसेण णामें तह रोहिणि । तहि उप्पण्णी वरमुहसररुह जक्खदेवि णामें तहु' तणुरुह। धम्मसेण' मुणि महियाणंगउ कयमासोववासु खीणंगउ। पय पक्खालेप्पिणु' विणु गावें ढोइउ तासु गासु पई भावें। घत्ता-अण्णहिं दिणि वणि कोलंति तुहं महिहरविवरि पइट्ठी। तहिं भीमें अजयरेण गिलिय मुय सयणेहि ण दिट्ठी ॥11॥ (12) दुबई-हरिवरिसंतरालि' उप्पण्णी मज्झिमभोयभूमिहे। किह आहारदाणु णउ दिज्जइ जिणवरमग्गगामिहे ॥छ। ताहं मरेवि बहुसोक्खरणिरतार णायकुमारदेवि भवणतरि। पुणु इह पुवविदेहि मणोहरि. देसि पुक्खलावइहि सुहंकरि। पुरिहि पुंडरीकिणिहि असोयहु' सोमसिरिहि भुजियणिवभोयहु । सुय सिरिकंत णाम होएप्पिणु जिणवत्तहि समीवि वउ लेप्पिणु । कणयावलिउववासु करेप्पिणु' सल्लेहणजुत्तीइ मरेप्पिणु। जुइपब्भारपरज्जियचंदइ हूई देवि कप्पि माहिदइ। उसके साथ प्रवेश कर गयी। मरकर वह व्यन्तरलोक में विद्याधरी हुई। दस हजार वर्षों तक भोग भोगने के बाद और भव-विलासों में भ्रमण करने के बाद, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सामर गाँव में यक्ष नाम के किसान की, रतिरस की नदी, देवसेना नाम की गृहिणी थी। वह उसकी श्रेष्ठकमलमुखी यक्षदेवी नाम की कन्या हुई। अनंग को नष्ट करनेवाले, एक माह का उपवास करने के कारण क्षीणकाय, धर्मसेन नामक मुनि आये। बिना किसी गर्व के उनके चरणों का प्रक्षालन कर उसने भावपूर्वक उन्हें आहार दिया। वता-दूसरे दिन बन में खेलती हुई तुम पहाड़ के विवर में प्रवेश कर गयीं। वहाँ भयंकर अजगर के निगलने से तुम मर गयीं, स्वजन तुम्हें नहीं देख सके। (12) तुम मध्यमभोगभूमि के हरिवर्ष क्षेत्र में उत्पन्न हुई। अतः जिनवर-मार्ग में चलनेवालों को आहारदान क्यों न दिया जाए ? वहाँ से मरकर प्रचुर सुखों से निरन्तर भरपूर भवनवासी स्वर्ग में वह नागकुमार की देवी हुई। फिर, इस पूर्व विदेह में पुष्कलावती के सुन्दर शुभंकर देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा के ऐश्वर्य को भोगनेवाले अशोक और सोमश्री की श्रीकान्ता नाम की पुत्री होकर तुमने जिनदत्ता के पास व्रत ग्रहण 4. 6 नेंतरसुर। 5. 8 “गावए। 6. APS जक्खहो । 7. AIs तुहुँ । 8. P धम्मसेण। 9. AP पक्वालेप्पिणु पय विष्णु। 10. As अंजगरेण । (12) 1. H वरसंतरालि। 2. 5 पुंडरिंगिणिहि। 3. A असोयहे। 4. A णिवभोयरे; 5 नृथ". 5. s समीहे। 6. K थउ । घरेप्पिणु; घरेप्पिणु। १.A सुरट्ठपणहो।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy