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महाकहपुष्फयंतविरयन महापुराणु
[95.12.8
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चिरपित्तिउ जो सो हुउ हलहरु विस्सदि केसउ परबलहरु। तेण गहीरवीरहक्कारणि
जलणजडीतणयाकारणि रणि। गिरिवइ खगवइ भुत्तवसुंधरु । सयडावत्ति णिहउ हयकंधरु'। हरि तिखंडमडिय महि भुजिवि इंदिय रंजिवि दुक्किउ भुंजिवि" । डप्पण्णउ तमतमपहि मीसणि णाणादुकखलक्खदुद्धरिसणि । पुणु इह भारहि गंगाणइतडि सीहवणंतरि तरुवरसंकड़ि। पत्ता-ससहावें दारुणु "हरिरुहिरारुणु तिक्खणक्खभामासुरु। ट कुरिमापन हुआ पंयाण पंधरघोलिरकेसरु |॥12॥
( 13 ) वणयरविंदह णं जमदूयउ मुउ पढमावणिबिलि संभूयउ। एक्कु समुदु तेत्थु जीवेप्पिणु पंचपयारु दुक्खु वि सहेप्पिणु। पुणु इह वरिसि जणिउ इह मावइ सिंधुकूडपुबिल्लइ भायइ। फारतुसारहारपंडुरतणु
जलणफुलिंगपिंगचललोयणु। कुंजररुहिरसित्तकेसरसडु
तरुणमयंकवंकदादब्भड़। कररुहरंधलग्गमुत्ताहलु
पल्लवलोललंबजीहादलु।
जिसमें गम्भीर वीरों का हुंकार हो रहा है, ऐसे ज्वलनजटी (विद्याधर) की कन्या के कारण हुए युद्ध में विजयापति, धरती का भोग करनेवाले विद्याधर राजा अश्वग्रीव को शकटावर्ती वन में मार डाला। तीन खण्ड धरती का उपभोग कर, इन्द्रियों का रंजन कर वह नारायण (विश्वनन्दी) पाप भोगने के लिए नाना दुःखों से दुर्धर्ष भीषण तमतमःप्रभा नामक नरकभूमि में उत्पन्न हुआ। फिर, इस भारत में गंगा नदी के तट पर तरुवरों से संकुल सिंहवन में___ यत्ता-अपने स्वभाव से भयंकर, गजरक्त से लाल तीखे नखों से भास्वर, दाढ़ों से स्फुरितमुख और कन्धों पर आन्दोलित अयालवाला सिंह हुआ।
(13) वन्यपशु समूह के लिए जो मानो यमदूत था। वह मरकर प्रथम नरक में फिर उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागर-पर्यन्त जीवित रहकर और पाँच प्रकार के दुःखों को सहन कर वह फिर इस भारत वर्ष में, सिन्धुकूट के पूर्वोभाग में गजों को मारनेवाली (सिंहनी) से उत्पन्न (सिंह) हुआ, जो स्फीत तुषार-हार के समान सफेद शरीर का था। अग्निकणों के समान उसके नेत्र चंचल और भास्वर थे। उसकी अयाल जटा गजरक्त से सिंचित थी। वह तरुणचन्द्र के समान दाढ़ों से उद्भट था। उसके नाखूनों के छेदों में मोती लगे हुए थे। उसकी जीभ पल्लवदल के समान चंचल और लम्बी थी। उसकी लम्बी पूँछ सिर तक मुड़ जाती थी। वह श्रेष्ठ
S.AP दो ते। 5. AP गिरिवरे। 7.AP हरिकंधरु। 8. AP पुंजिदि। 9. AP करि ।
(13) 1. A वणयरचंदहो; P वणयरवेदहूं।