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________________ 3461 महाकहपुष्फयंतविरपर महापुराणु [98.18.7 10 णउलहु कण्ण का वि जयसुंदरि दिज्जइ लग्गी खलमिगकेसरि । ताएं महु हक्कारखं पेसिउ महं मि देहु दालिदें सोसिउ। ता तें दिण्णु ताहि चामीयरु छिदिवि घल्लिउ दालिइंकुरु। मुद्द सससहि हत्थें पट्टाविय दिण्णी करि कुमरिई मणि भाविय। अप्पणु पुणु गल तं पुरु सुहयरु जहिं गफ लहिं सो तन्नवरसहयरु। सहुँ जणणिइ णरवरसुहखाणिहि आया झत्ति वे वि उज्जेणिहि। - घत्ता-दिवउ तेण गरिंदु भासिउ देव पयावइ। महुँ पिउदविणु ण देइ अवरु' कण्ण पाडलगइ ॥18॥ (19) मई अहिलसिय कण्ण हयमग्गउ ससुयह करयलि लावइ लग्गउ। ता आरुठु राउ कोक्किउ वणि देवाविउ धणु 'तियचूडामणि। णिम्मुक्की' णिवकुमार' वणिदें। कउ विवाहु रिद्धीइ गरिदै। जणणहु केरउं तहु सेट्टित्तणु दिण्णउं 'पायडपवरपहुत्तणु। रायरोसु पेच्छवि दुविणीएं ताएं तणउ खमाविउ भीएं। तासु विरुज्झमाणु सुहियत्तें महिवइ तोसिउ विसहरदत्ते । सिरिअरहतहु कलिमलहारी विरइय पुज्ज मणोरहगारी। जयसुन्दरी नाम की कन्या प्रदान की जा रही है। हे खलमृगों के लिए सिंह ! पिता ने मेरे लिए बुलावा भेजा है। मेरा शरीर दारिद्र्य से सूख रहा है। तब उसने उसे सोना देकर उल्टे दारिद्र्य को जड़ से उखाड़कर फेंक दिया। अपनी बहिन के हाथ से भेजी गयी उस अंगूठी को कुमारी ने अपने हाथ में पहिन ली। उसे वह मन में अच्छी लगी। शुभ करनेवाला कुमार (नागदत्त) स्वयं उस नगर के लिए गया जहाँ उसके गुरु और मित्र तलवर थे। अपनी माँ के साथ, शीघ्र ही वे दोनों मनुष्यों के सुख की खान उज्जयिनी में आये। ___घत्ता-उसने राजा से भेंट की और कहा-“हे देव प्रजापति ! वह मेरा प्रिय धन नहीं देता, और हंसगामिनी मेरी पत्नी भी। (19) __ मेरे द्वारा चाही गयी, मार्ग में अपहृत कन्या यह अपने पुत्र के हाथ में देने लगा है।" इस पर राजा क्रुद्ध हो उठा। उसने सेठ को बुलाया और उससे धन और उस स्त्रीश्रेठ को दिलवाया। सेठ ने राजकुमारी को मुक्त कर दिया। राजा ने ऋद्धि के साथ उसका विवाह कर दिया। पिता का श्रेष्ठीपद और जो प्रकट विशाल प्रभुता थी, वह भी उसे दे दी। राजा का प्रकोप देखकर डरे हुए दुर्विनीत पिता ने पुत्र से क्षमा माँगी। उससे (पिता से) विरुद्ध होते हुए, राजा को सुधी नागदत्त ने सन्तुष्ट किया। उसने श्री अरहन्त भगवान 3. " "मृग 1 1. AP निमिणवि। 5. AP मुद्द ससाहे हत्थे पठाविय। 6. A बे यि शत्ति। 1. AP अबरु वि कप्तत्तु । (19) I. P तृय'। 2. P णिमुक। 3. 1 नव" । 4. AP पायदु पउर" | S. AP विसहरयतें। 6. AP मोहरगारी।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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