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महाकइपुष्कयंतविरया पहापुराणु
193.2.9 माहिसियवंसरवदिण्णकण्ण जहिं मृगई" ण वारइ हलियकण्ण । मिगई वि भक्खंति ण कणविसेसु" जहिं सच्चु सुसुत्थित णिलइ सेसु। 10 घत्ता-तहिं पोयणणामु णवरु अस्थि विस्थिण्णउँ ।
सुरलोएं णाइ "धरिणिहि पाहुडु दिण्णउं ॥2॥
कारंडहंसकयीसणाई जहिं सरि सरि णिरु मिट्टई पयाई जहिं 'सकुसुमदुमजणियाहिलास भक्खंतह रससोक्खुज्जलाई वेल्लीहराई जहिंसुरहियाई णिच्च चिय लक्खणमाणियाउ विमलाउ सपोमउ सोहियाउ | परिहाउ तिण्णि पाणिउं वहंति जहिं विविहरयणदित्तीविचित्तु
जहिं सुरतरुछण्णई उववणाई। ण कइकयाई सरसई पयाई। णं मयरद्धयपहरणणिवास। जहिं. फलई गाइं सुक्कियफलाई। कीलासयवहुवरसुरहियाई । गहिराउ ससीयउ माणियाउ । णं रहुवइवित्तिउ' दीहियाउ। जहिं णं णिवदासित्तणु कहति। पायारु दुग्गु णं सदहि' चित्तु।
जिन्होंने ऐसी कृषक कन्याएँ जहाँ मृगों को नहीं भगाती और हरिण भी कण विशेष नहीं खाते; जहाँ घरों में सब लोग सुस्थित हैं,
धत्ता-वहाँ फैला हुआ पोदनपुर नाम का नगर है, जो मानो स्वर्गलोक ने धरती के लिए उपहार में दिया
हो।
जिनमें चातक और हंस पक्षी शब्द कर रहे हैं, ऐसे कल्पवृक्षों से आच्छन्न उपवन जहाँ हैं; जहाँ नदी-नदी में मीठा (पय) पानी है, मानो कवि के द्वारा रचित पद्य (पद) हों; जहाँ पुष्यों सहित वृक्षों के द्वारा अभिलाषा उत्पन्न करनेवाले वृक्ष ऐसे मालूम होते हैं मानो कामदेव के प्रहरणों के निवास हों। रससुख से उज्ज्वल फलों को खानेवालों के लिए ये ऐसे लगते हैं, जैसे उनके सुकृतों के फल हों; जहाँ लतान सुरभित हैं, जो क्रीड़ा की इच्छा रखनेवाले सैकड़ों वधूवरों को प्रच्छन्न किये हुए हैं; जहाँ बावड़ियाँ रघुपति (राम) के चरित की तरह नित्य ही लक्खणमाणियाउ (सारस, लक्ष्मण से सहित), गम्भीर, ससीय (शीतलता, सीता से सहित), मान्य और विमलाउ (विमल अप (जल) वाली, निर्मल), सपोम (कमल, राम से सहित), जहाँ पानी को धारण करनेवाली तीन-तीन परिखाएँ हैं, जैसे वे राजा की दासता को बता रही हों; जहाँ विविध रत्नों की दीप्तियों से विचित्र प्राकार और दुर्ग ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे सती के चित्त हों।
10. AP मिगई। 11. A तिमविसेसु। 12. जणवत असेतु। 18. AP पोपणु णाम । 19. AP घरपिहे।
(5) AP सुखसुमन। 2. A फीजातुरवस्याबरहियाई कौलारममाया' | S.A पहचताबीहिपाठ Pावितोउ । 1.A जहिं गं गयवासितणु कहांत जात विवातिलगुण करीत। 3. A पहि।