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महाकइपुष्फयंतावरवउ महापुराणु पिउसिक्खिविउ ण किउ मई मुखें एवहिं काई जियतें दुक्खें। इय चिंतइ चित्तेण पसण्णे वितरसुरकुलि जायउ पुण्णे। तहिं सम्मत्तु एण पडिवण्णउं कह णिसुणिवि हियउल्लउ भिण्णउं । णच्चिङ जिणवरधम्मुच्छाहें ता पडिजंपिउं मागहणाहें। घत्ता-भो णित्तम गोत्तम कहहि महुँ पहपच्छइयससंके। गयगारवि चिरभवि किं कयउं विज्जमालिणाम ॥8॥
(9) भणइ भडारउ पुलविदेहइ वीयसोयपुरि इह सुहगेहइ'। पुक्खलवइदेसंतरि राणा पउमु णामु पउमाइ पहाणउ । तहु वणमाल देवि खलमद्दणु सिवकुमारु णामें पियणंदणु। सो एक्कहिं दिणि गउ णंदणवणु आवतेण दिछु णायरजणु। णाणामंगलदव्वविहत्याउ
पुच्छिउ मंति तेण 'सुयसत्थउ। कहिं संचलिउ लोउ अइसायरु ता सो तहु भासइ मइसायरु। रिसि परमेसरु इंदियबलबलि सायरदत्तु णाम सुयकेवलि। कयमासोववासु खीणंगउ दित्तितवेण' दित्तिभावं गउ। पिंडणिमित्तें मणि संतुट्ठ
कामसमुदइ णयरि पइट्टउ ।
दुःश्व उठाकर जीवित रहने से क्या ? इस प्रकार सोचता हुआ, चित्त में प्रसन्न वह पुण्य के कारण व्यन्तरदेव के कुल में उत्पन्न हुआ। वहाँ सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। यह कथा सुनकर उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा और जिनवर के धर्म-उत्साह से नाच पड़ा।" तब मागधनाथ ने प्रश्न किया---
यत्ता- "हे गज्ञान-तम से रहित गौतम ! बताइए कि अपनी प्रभा से चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाले एवं गतगर्व विद्युन्माली ने पूर्वजन्म में क्या किया था ?"
आदरणीय गणधर कहते हैं-"पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश के अन्तर्गत शुभ ग्रहों से युक्त वीतशोक नगर में पद्यों में प्रधान महापद्म नाम का राजा था। उसकी वनमाला नाम की देवी थी और दुष्टों का दलन करनेवाला शिवकुमार नाम का प्रियपुत्र था। एक दिन वह नन्दनवन के लिए गया । जाते हुए उसने नागर-समूह को देखा जो अपने हाथ में नाना मंगल द्रव्य लिये हुए था। उसने शास्त्रों को सुननेवाले अपने मन्त्री से पूछा"ये लोग अत्यन्त आदर के साथ कहाँ जा रहे हैं ?" तब यह मतिसागर मन्त्री बताता है-"इन्द्रियों के बल को नष्ट करनेवाले बलवान सागरदत्त नामक श्रुतकेवली, जो एक माह के उपवास के कारण क्षीण हैं, दीप्त नामक तप के कारण दीप्त भाव को प्राप्त हुए हैं। अपने मन में सन्तुष्ट (वह) आहार के लिए कामसमुद्र
HAI' 'मसंकार ::. दिनमानि । i. APणामकार।
(9) I.AP सिवर्गहए। 2. A सुपसत्थर। 3. AP दित्ततवेण। 4. AP काममिदा