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महाकरपुप्फवंतविस्यउ महापुराणु
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'सुधारिसम-हासवसागर भग्ग णराहिव राहु वि भग्गउ । सरवरसलिलु पिएव्वइ लग्गउ भुक्खइ भज्जइ लज्जइ णग्गउ । वक्कलु पहिरइ तरुहल भक्खइ । मिच्छाइट्टि असच्चु णिरिक्खइ। अण्णाणिउ णउ काई मि जाणइ पंचवीस तच्चई वक्खाणइ। कव्यु संखसासणु तें दिट्ठ
कविलाइहिं सीसह उवइट्ठउं। परिवाइयतावसह पहिल्लउ मुउ तिदंडि मिच्छामणसल्लउ। पत्ता-कयतियसवियप्पइ पंचमकप्पइ कुडिलधम्मु णं पाउसु ।
उप्पण्णउ बंभइ दुक्खणिसुभइ दहसमुद्ददीहाउसु ॥5॥
कविलहु विप्पहु कोसलपुरवरि जण्णसेणबंभणिज्यरंतरि। बंभामरु णरजम्महु आयउ जडिलु णाम दियवरु संजायउ । तिव्वे पुवब्मासे भाविउ कम्में भयवदिक्ख पुणु पाविउ। धरइ तिदंड तिदंड ण पहणइ परमागमविहि कि पि वि ण गणइ। अंगई धुवइ धुयई णउ दुग्गइ सोत्तई छिवइ छिवइ णउ सुहमइ।
मिच्छारसचिक्खिल्लें चिड्डइ हरि हरि' घोसइ जड्ड जलि बुड्डइ । यति के रूप में प्रद्रजित हो गया। ऋषभ के समान कठोर महातप में लगे हुए दूसरे राजा विचलित हो गये, यह भी विचलित हो गया। सरोवर का पानी पीने लगता है, भूख से भग्न होता है और नग्न रहने में लजाने लगता है। वह वल्कल पहिनता है, तरुफल खाता है। मिथ्यादृष्टि वह असत्य को देखता है। अज्ञानी वह कुछ भी नहीं जानता। फिर, पच्चीस तत्त्वों की व्याख्या करता है। कपिल आदि के द्वारा शिष्यों के लिए उपदिष्ट सांख्यदर्शन के शास्त्र को देख लेता है। परिव्राजक तपस्वियों में पहला, मन की मिथ्याशल्यवाला वह त्रिदण्डी मर गया।
घत्ता–किया गया है देव होने का विकल्प जिसमें, ऐसे पाँचवें स्वर्ग में वह उत्पन्न हुआ, मानो कुटिलधर्म (वक्रधर्म, वक्रधनुष) वर्षाकाल हो।
कोशलपुरवर में कपिल ब्राह्मण की यज्ञसेना ब्राह्मणी के उदर के भीतर ब्राह्मण-अमर मनुष्य जन्म के लिए आया और जटिल नाम का द्विजवर हुआ। अपने तीव्र पूर्वाभ्यास और कर्म से उसने भागवत दीक्षा पुनः ले ली। वह त्रिदण्ड धारण करता है, परन्तु तीन शल्यों (त्रिदण्ड) को नहीं मारता। परमागम विधि को वह कुछ भी नहीं गिनता। वह अंगों को धोता है, परन्तु दुर्गति को नहीं धोता। कानों को छूता है, परन्तु शुभमति को नहीं छूता। वह मिथ्यात्य के रस की कीचड़ मलता है, हरि-हरि घोषित करता है और मूर्ख वह पानी
4. A उद्धररिसह" | 5. AP सरवरे सलिलु । 5. AP सिवा । 7. A सीसः P सीसहि। 8. AP परिवाअयतययरह। 9. P तिडि। 10. A दह ।
(6) 1, तित्य वि पुवाम्भासें तिव्य पुष्वाभासें । 2. P omits धुयइ। 3. AP चिक्खालें। 4. A बुझाइ। 5. A हरु।