SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2621 [93.12.1 पहाइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (12) जिह सिरि सजडु तिह हियइ जडु। जिह सरइ हरु तिह विरइहरु। जिह संभरइ तिह संभरइ। जिह गत्तरयं तिह चित्तरयं। णिच्च धरइ पावंधरई। जिह कोवणिओ तिह को वणिओ। कड्डई छुरियं जुइविच्छुरिय। धियमेहलओ सुसमेहलओ। सो तावसओ दुक्कियवसओ। जा तहिं वसइ वक्कल' वसइ। पत्तं असई बुद्धी असद्द। बुढ़ेिं विगया बहुभावगया। वसुमाणमया किं हा समया। काणणवसही' जइ पत्थि सही। करुणा परमा ता किं परमा। लभइ जइणा एवं जइणा। भासंति वह जगसंतिवह। . 15 (12) जिस प्रकार उसका सिर सजड (जटायुक्त) था, उसी प्रकार वह हृदय में भी जड़ था। जिस प्रकार वह शिव को याद करता है, उसी प्रकार विशिष्ट रतिगृह को याद करता है। जिस प्रकार उसकी शम्भु में रति थी, उसी प्रकार स्वयं में रति थी। जिस प्रकार शरीर में धूल थी, उसी प्रकार उसके चित्त में भी धूल थी। पापान्ध वह पापरूपी धूल नित्य धारण करता है। जिस प्रकार कौपीन धारण करता है, उसी प्रकार वह कोपनशील भी है। द्युति से चमकती हुई छुरी निकालता है। योगपट्ट को धारण करता है। जिसकी इच्छा का विनाश हो गया है, वह तपस्वी पापों के वशीभूत था। वह वहाँ रहता है और वल्कल धारण करता है, पत्ते खाता है। उसकी बुद्धि असती है। वृद्धि को प्राप्त और नाना चित्त परिणामों से युक्त है। धन और मानवाली है, पशु सहित है, और वन में निवास करनेवाली है, लेकिन यदि उसकी सखी में परम करुणा नहीं है, तो यति के द्वारा, क्या परम लक्ष्मी पायी जा सकती है ? इस प्रकार जैन जग में शान्ति स्थापित करनेवाले पथ का कथन करते हैं। (12) 1.A सज्जडु। 2. A संचरइ। 3. A पावे घरइ । 4. A या। 5. P पहयिछुरियं । 6. A वर्क। 7.A को ण यणमही। 8. Aomits जगतिवह।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy