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________________ 89.17.131 [ 181 15 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण घत्ता-तूसिवि राइणा पायबियाणउ। ___बारहगामहो किउ सो राणउ ।।16।। ( 17 ) दुवई–णवर सुधम्मणाममुणिणाहें संबोहिउ महीसरो। थिउ जइणिंददिक्ख पडिवजिवि उज्झियमोहमच्छरो ॥७॥ पुत्तेण तासु सावयवयाई गहियाइं छिण्णबहुभवभयाई। मेहरहें णिदिव मासतित्ति हित्ती सूयारहु तणिय वित्ति। आरुढु सुलु सो मुणिवरासु हा केम महारउ हित्तु गासु । वेहाविय बेण्णि वि बप्पपुत्त सवणेण जिणागमवहि णिउत्त। मारउ' मारिज्जइ णस्थि दोसु मणि एम जाम सो वहइ रोसु। गोयारि पइट्टउ ता सुधम्म सद्धालुउ छड्डियछम्मकम्मु। सूयारें पत्थिउ दिदि देहि परमेट्ठि साहु रिसि ठाहि ठाहि। ता थक्कु सूरि सचियमलेण पच्छण्णेण जि कुटुं खलेण। फरुसाइं विसाई सवक्कलाई करि दिण्णई घोसायइंफलाई। सिद्धई संभारविमीसियाई जइपुंगमेण संपासियाई। मेल्लियि अभक्ख तच्चावलोइ परदिण्णु वि' विसु भुंोत जोइ। " 10 नोट घता-सन्तुष्ट होकर उस पाकविज्ञानी को बारह गाँव का राजा बना दिया। (17) एक दिन सुधर्म नाम के मुनि ने राजा को सम्बोधित किया। मोह-मत्सर छोड़ते हुए उसने जैन दीक्षा स्वीकार कर ली। उसके पुत्र ने भी अनेक जन्मों के दुःखों को दूर करनेवाले श्रावक के व्रत स्वीकार कर लिये। पत्र मेघरध ने मांसतष्णा की निन्दा की और रसोइया की आजीविका छीन ली। वह दुष्ट अमृत-रसायन रसोइया मुनिराज से अप्रसन्न हो गया कि इसने किस प्रकार मेरे मुंह का कौर छीन लिया। इस श्रमण ने जिन धर्मपथ में दीक्षित कर बाप-बेटे को ठग लिया। मारनेवाले को मारना चाहिए, इसमें दोष नहीं है। जब वह अपने में इस प्रकार क्रोध कर रहा था कि इतने में श्रद्धामय और पापकर्मों से रहित सुधर्मा मुनि गोचर्या के लिए निकले। रसोइए ने प्रार्थना की-'दृष्टि दीजिए, परमेष्ठी साधु ऋषि मुनि ठहरिए।' इस पर मुनि टहर गये। तब संचितमलवाले प्रच्छन्न उस दुष्ट क्रोधी ने छिलके से युक्त कठोर विषाक्त तुमड़ी के पके हुए और धनिया (सम्हार) से मिले हुए फल उन्हें दिये। मुनिश्रेष्ठ ने उन्हें खा लिया। तत्त्व का अबलोकन करनेवाले योगी अभक्ष्य को छोड़कर दूसरे का दिया हुआ विष (विषेला भोज्य) भी खा लेते हैं। गिरनार पर्वत 13. बारहं। (17) I. A "यवसयाई भयभवाई। 2. B मारुउ । ४. Bएडिय। 1. 5 सन्वरकताई। 5. A घोसाईफलाई: Als धोसायइफलाई agstrust his Mos. h. AP विसभार। 7. B संपासिथाइ। 8. P चिसु वि।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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