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________________ 98.7.11] [ 331 महाकइपुप्फयंतावरयउ महापुराणु दसहदीहपवासें मंथिय जपमाण ससणेहा पंथिय । वीसमंत काणणि सद्दलदलि' जा हिंडहिं बेण्णि वि धरणयलि। घत्ता-ता पई पत्थरपुंजु दिट्टउ चारु समुण्णउ। अण्णु वि पक्खिवमालु भूरुक्नु वि वित्थिण्णउ ॥6॥ सो पई दिउ देवि पयाहिण पभणइ' तुम्हारइ संथुय जिण। अम्हारइ पुणु पिप्पलफासें मुच्चइ माणुसु गुरुदुरियंसें। तं णिसुणिवि ते तरुवरपत्तई पाय पुसेप्पिणु दसदिसि धित्तई। भासिउ तरु ण देउ परमत्य तुई वेयारिउ 'सोत्तियसत्यें। पुरउ चरंतु जइणु सहुं मित्तें कइकच्छुहि पणमिउ धुत्तत्तें। सा तेणुप्पाडिवि मयतें बंभणेण उववासु करतें। घट्टई अट्ट वि अंगोवंगई कइणीरोमई' भग्गइं तुंगई। दिट्टई रुहिरगठिचक्कलियई अरुहदासु पभणइ लइ फलियई। दुक्कियाई तुह अज्जु जि रुट्ठर देउ महारउ किं पई घट्ठउ । जोयहि सुरसाणिझु विसिउ पई अप्पणु णयणेहि जि दिउं । 10 पुणु सच्चर सच्चिल्लउ सुच्चइ पिंपलु देउ ण 10 अग्गिउ बुच्चइ। दीर्घ प्रवास से थके हुए वे दोनों पथिक आपस में स्नेहपूर्वक बातें करते हुए, पत्तों से सघन वन में विश्राम करते हुए धरणीतल पर जब घूम रहे थे, पत्ता-तब तुमने समुन्नत सुन्दर पत्थरों का ढेर देखा। एक और पक्षियों के कोलाहल से युक्त तथा विशाल वृक्ष देखा। __ तुमने प्रदक्षिणा देकर उसकी वन्दना की और कहा-"तुम्हारे वहाँ जिनवर की स्तुति की जाती है, हमारे यहाँ तो पीपल के स्पर्शमात्र से मनुष्य भारी दोषों से बच जाता है।" यह सुनकर उस श्रावक ने उस वृक्ष के पत्तों को तोड़कर दसों दिशाओं में बिखेर दिया और कहा कि वास्तव में वृक्ष देव नहीं होता। तुम ब्राह्मणशास्त्रों के द्वारा ठगे गये हो। जैनी मित्र के साथ आगे जाते हुए उस धूर्त ने करेंचवृक्ष को प्रणाम किया। उपवास करते हुए उस घमण्डी ब्राह्मण ने उस लता को अंगोपांगों पर रगड़ लिया। रोम उखड़ जाने से वे नष्ट हो गये। उसके रोम की गाँठे और चकत्ते दिखाई दिये। अरुहदास (श्रावक) बोला-“लो, दुष्कृत का फल पा गये। तुम आज भी रुष्ट हो, तुमने हमारे देव को स्पर्श क्यों किया ? तुम विशिष्ट देवसान्निध्य देखो। तुमने खुद अपनी आँखों से देख लिया है। फिर सत्य को सत्य ही कहा जाता है। पीपल और अग्नि 7. सदल । ४. A "वमारू। (7) I. AP पणिछ। 2. A पिंपलफंस; P पिप्पलफंसें। 5. AP दहदिसि । 4. " सो तियसत्यें। 5. AP पुणु वि चरंतु। 6. AP मा पुणु उप्पाडेवि मयमलें। 7. APोपहिं भिण्णई तुंगई। R. AP सुरसामत्थु । 9. AP पिपलु। 10. P अम्गि सु बुच्चइ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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