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________________ 332 1 महाकइपुष्फर्यतविरयर महापुराणु [98.7.12 15 देउ ण हुयवहु ण जलु ण वणसइ चच्चरि चच्चरि केसवु णिवसइ। मुइ मुड़ मित्तदेव मूढत्तणु दहि जिणवरु तित्थपवत्तणु। पुणु गय विण्णि वि भाति वितं हि लागि दिन गंमहि । पउं" पवित्तु पउं मलणिण्णासणु __पई धरिवर्ड ण वि दियवरसासणु। ता' जिणभत्तएण तहिं लद्ध पवरोयणु गंगाजलसिद्धउं। उच्छिट्टर्ड करेवि तहु ढोइउं लइ लइ लइ पवित्तु पोमाइउं। गंगाजलु दोसेण ण छिप्पइ भो भो भरहि गासु दिय जडमइ । पुणु तायसु पंचग्गि "पजोइउ दियपहिएं मणु संसइ ढोइउं। परजइणा सो बोल्लिवि छिद्दिउ कउलसुत्तु दरिसंतें मद्दिउ। भक्खइ मासु पियइ महु गुलियउ तावसु भइरवणाहहु मिलियउ । यत्ता-बंभणु वण्णहं सारु देउ भणंतु सणाणें। सावएण सो वुत्तु हो किं कुलअहिमाणे ॥7॥ ( 8 ) तं कुलु जहिं कम्मक्खउ किज्जइ तं कुलु जहिं जिणधम्म मुणिज्जइ । तु कुलु जहिं कुसीलु वज्जिज्जइ तं कुलु जहिं सुणाणु अजिज्जड़। 20 को देव नहीं कहा जाता। देव न तो अग्नि है, न जल है, न वनस्पति है, न चबूतरे-चबूतरे पर केशव रहता है। हे मित्रदेव ! तुम देवमूढ़ता छोड़ो। तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले जिनवर की तुम वन्दना करो।" फिर, जिसमें लहरें घूम रही हैं, ऐसी गंगा नदी पर वे दोनों पहुँचे। ब्राह्मण ने गंगाजल की बन्दना की-हे गंगे ! तुम्हारा पानी पवित्र है, पापों का नाश करनेवाला है, तब भी तुमने द्विजवर आसन को धारण नहीं किया। जिनवर के भक्त ने गंगाजल से बने हुए अच्छे भात को लिया और जूठा करके उसके पास ले गया। उसकी प्रशंसा कर वह बोला, लीजिए, लीजिए, पवित्र है। गंगाजल को कोई दोष स्पर्श नहीं करता। हे जड़मति विप्र ! तुम कौर लो। फिर, उन्होंने पंचाग्नि तपते हुए साधु को देखा। द्विजपथिक के मन में सन्देह हो गया, परन्तु श्रेष्ठ जैनी ने बोलकर उसका खण्डन किवा और चार्वाक-सूत्र दिखाते हुए उसका मर्दन कर दिया। कौलिकनाथ से मिलकर (उसके मत में दीक्षित होकर) तपस्वी मांस खाता है और गुड़ की शराब पीता है। पत्ता-श्रावक ने उससे कहा-"ज्ञान के कारण, ब्राह्मण को वर्गों में श्रेष्ठ देव कहा जाता है। कुल के अभिमान से क्या ?" कुल वह है जिसमें कर्मों का क्षय किया जाता है, कुल वह है जिसमें जिनधर्म का विचार किया जाता 11. A वणासहपणासइ। 12. AP किसिउ। 13. AP एजें। 14. AP एवं धरिय दियवरसासणु। 15. Pomits ता। [G. AP पई। 17. A पलोइट। 18. A धरजाणा।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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