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________________ 1181 महाकदपुप्फयंतविरयऊ महापुराणु [87.1.1 सत्तासीतिमो संधि मारिए म जीवादारविधा गय सोएण रुयंति पिउहि' पासि जरसिंधहु ॥ ध्रुवकं ॥ (1) दुवई-दुम्मण णीससंति पियविरहहुयासणजालजालिया। ___ वणदवदहणहुणियणववेल्लि व सन्चावयवकालिया ॥ गयकंकण दुहिक्खलीला' इव पुप्फविरहिय भेलमहिला इव । गट्टपत्त फागुणवणराइ व सुठ्ठ झीण णवचंदकला इव। मोक्कलकेस कउलदिक्खा इव पहाणविवज्जिय जिणसिक्खा इव । पउरबिहार बउद्धपुरी विव वरविमुक्क काणीणसिरी' विव । कंचिविचज्जिय उत्तरमहि विव पंडुछाय छणदंयहु सहि विव । णिरलंकारी कुकइहि वाणि व दुक्खहं भायण णारयजोणि व। गलियंसुयजलसित्तपओहर अवलोएवि धीय मउलियकर। भणइ जणणु गुरु आवइ पाविय किं कज्जेण केण संताविय। भणु तुह केण' कयउं विहवत्तणु को ण गणइ महुँ तणउ पहुत्तणु। जीविउं अज्जु जि कासु हरेसइ कासु कालु कीलालि तरेसइ। 10 सतासीवीं सन्धि मथुरानाथ के मारे जाने पर यशचिलवाले पिता जरासन्ध के पास शोक से रोती हुई जीवंजसा आयी। दुर्मना, प्रिय विरह की अग्निज्वाला से प्रज्वलित निश्वास लेती हुई, दावानल से दग्ध वनलता की तरह उसके सभी अंग काले पड़ गये थे। दुर्भिक्ष लीला की तरह 'गयकंकण' (कंगन, अन्नकण से रहित) वृद्ध महिला की तरह, पुष्परहित (फूल, ऋतु रहित), फागुन की वनस्पति की तरह नष्टपत्र (नष्ट पत्ररचना और पत्ते), नवचन्दकला के समान अत्यन्त क्षीण, कौलदीक्षा की तरह मुक्तकेश, जिनशिक्षा की तरह स्नान से रहित, बौद्ध नगरी की तरह (प्रचुर विहारवाली, विशेष हारों से रहित), कानीन की लक्ष्मी की तरह (पति, वर से मुक्त), उत्तरभारत की तरह कंचीविवर्जित (काँची नगरी, करधनी से रहित), कुकवि की वाणी की तरह निरलंकार, नरकयोनि के समान दुःख की भाजन थी। पिता कहता है-तुमने महान् आपत्ति पायी है, किस काम से किसने तुझे सताया है ? बताओ, तुम्हारा वैधव्य किसने किया ? कौन मेरी प्रभुता को स्वीकार नहीं करता ? आज भी मैं किसके जीवन का अपहरण नहीं कर सकता ? आज यम किसके रक्त में तैरेगा ? (1) I.A पहुहे पासि। 2. AP जरसेंधहो। 3. P दुभिक्य" । 1. काणीणे। .. P महि उत्तर। 6. A पंडुच्छाय सहि छणहंदहो इव। 7. AP कयर केण. Bअज्जु वि।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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