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पहाकइपुष्फवंतविरयड महापुराणु
[99.17.1
( 17 ) सुरगिरिसुरदिसियहि णिसुणि भाय जावच्छमि सुहं भुजंतु राय। ता दिलर मई मुणि दिव्यणाणि सो पुच्छिउ इच्छियसोक्खखाणि । तें कहिउ सव्वु' महुं भवविहारु तेरउ णिसुणहि अच्चंतसारु। सो पुप्फदंतु मुड जंति कालि हुउ पुक्खलवइदेसंतरालि। घरपंड्पुंडरिंकिणिपुरंति
विजयधरु पहु जयलच्छिवंति। विजयावइदेविहि दिहिअणूणु जयरहु णामें तुहं पढमसूणु। अण्णहि दिणि वणकीलइ गओ सि सकमलसरवरतडि संठिओ सि। तहि बालहसु दिट्ठउ चरंतु आणाविउ भयरसधरहरंतु । पियराई तासु णहयलि भमंति णियभासइ हा हा सुय भणति । दीहरसंसारभमाइएण
तावेक्कं रूसिवि चेडएण। विधिवि' मारिउ सो हंसताउ तुह जणणिहि हुउ कारुण्णभाउ। सा भणइ पुत्त हम्मइ ण जीउ दुग्गइ पइसइ जणु दुव्विणीउ। तं जणणिवयणु णिसुणेवि तेण पडिवण्णउ धम्मु महायरेण। सोलहमइ दिणि मुक्कउ मरालु जाइवि णियमायहि मिलिउ बालु । चिरु णिवसिरि भुजिवि जयरहेण तवचरणु लइ5 दिणयरमहेण।
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(17) हे भाई ! सुनो, सुमेरु पर्वत की पूर्वदिशा में जब मैं सुख का उपभोग करते हुए रह रहा था, तो मैंने सख की खान चाहनेवाले किसी दिव्यज्ञानी मनि से पछा और उन्होंने मझे समस्त जन्मान्तरों का भ्रमण बता दिया। तुम अपना (तुम्हारा) वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में सुनो। समय बीतने पर वह पुष्पदन्त मर गया और पुष्कलावती देश के धवल-गृहों और जयलक्ष्मी से युक्त पुण्डरीकिणी नगरी में राजा विजयन्धर (उत्पन्न हुआ। उसकी विजयावती देवी से, भाग्य में अन्यून (महान्) तू जयरथ नाम का पहला पुत्र हुआ। एक दिन तू वनक्रीड़ा के लिए गया हुआ था और एक कमलसरोवर के तट पर बैठा हुआ था। वहाँ तूने एक बाल हंस को विचरण करते हुए देखा। भयरस से थर-थर काँपते हुए उसे तुम पकड़कर ले आये। उसके माला-पिता आकाश में मँडराते हुए अपनी भाषा में 'हा सुत, हा सुत !' कह रहे थे। तब संसार की दीर्घ परम्परा में घूमनेवाले तुम्हारे एक सेवक ने क्रोध में आकर तीर से वेधकर हंस के उस पिता को मार दिया। इससे तुम्हारी माँ को करुणा हुई। वह बोली, "हे पुत्र ! जीवों को नहीं मारना चाहिए, दुर्विनीत जन दुर्गति में जाते हैं।" अपनी माँ के इन शब्दों को सुनकर महादरणीय उसने धर्म स्वीकार कर लिया। सोलहवें दिन उसने हंस को छोड़ दिया। वह बालहंस जाकर अपनी माता से मिला। चिरकाल तक राजलक्ष्मी का भोग कर, दिनकर के
(17) 1. A सच्चु । 2. AP जंग कालि। 3. AP सुय लवंति। 4. बंधेवि मारायिर हंसताउ: P बंधेवि मारिउ सो हंसताउ ।