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________________ 1081 महाकइपुष्फयंतविरक्त महापुराणु [86.1.16 20 धगधगधगति हुयवहि जलंति। उप्पण्णसोय कंदड जसोय। महु एक्कु पुत्तु अहिमुहि णिहित्तु। मा मरउ बालु मंई गिलउ* कालु। इय जा तसंति दीहर' ससंति। पियरई रसंति ता विहियसंति। अलिकायकति रणि धीरु मंति। पभणई उविंदु णिहणवि' फणिंदु। लिणाई हरमि जलकील करमि। वत्ता-इय भणिवि'" गउ कण्हु संप्राइउ जउणासरवरु। उभडफडविवडंगु जमपासु व धाइउ विसहरु ॥1॥ णं कंसकोवहुयवहहु' धूमु णं ताहि जि केरउ जलतरंगु सियदाढाविज्जुलियहि फुरंतु हरिसउहुं फडंगुलिरयणणक्खु णं दंडदाणु सरसिरिइ मुक्कु णं णइतरुणीकडिसुत्तदामु। णं कालमेहु दीहीकयंगु। चलजमलजीहु विसलव मुयंतु । पसरिउ जमेण करु घावदक्खु । गयीवेयउ" कणहहु' पासि ढुक्कु । कौन छू सकता है ? कौन गुच्छे को तोड़ सकता है। शोक से व्याकुल यशोदा विलाप करती है, मानो धक-धक् करती हुई आग जल रही हो, मेरा एक ही पुत्र है और उसे साँप के मुख में डाल दिया गया। मेरा बच्चा न मरे, चाहे काल मुझे खा ले। इस प्रकार वह त्रस्त होती है और लम्बी साँसें लेती है। इस प्रकार माता-पिता के कहने पर शान्ति करनेवाले, भ्रमर के शरीर के समान कान्तिवाले, युद्ध में धीर और विचारशील उपेन्द्र (कृष्ण) कहते हैं-नागराज को मारकर कमलों का हरण करूँगा और जलक्रीड़ा करूँगा। घत्ता-यह कहकर कृष्ण गये और यमुना-सरोवर पर जा पहुँचे। अपने उद्भट फनों से भयंकर अंगवाला वह विषधर यमपाश की तरह दौड़ा। मानो वह कंस की कोपरूपी आग का धुआँ हो, मानो नदीरूपी तरुणी की कटि का सूत्रदाम हो, मानो उसी की जलतरंग हो, मानो अपना लम्बा शरीर फैलाए हुए वह कालमेघ हो। अपनी श्वेत दंष्ट्राओं की बिजलियों से चमकता हुआ वह चंचल दो जीभवाला विषकण उगल रहा था। फनों की अंगुलियों के रत्नरूपी नखवाले उसने आघात में दक्ष अपना हाथ यम की तरह हरि के सम्मुख फैलाया, मानो सरोवर की लक्ष्मी ने दण्डबाण G. B गिलिउ। 7. 5 दोहरु । R. A रणवीर मंतिः रणधीरु मंति। 9. APS णिहणेवि। 10. B भणधि। 11. Pसंपाइऊ। 12. A "विहडंगु। (2) 1.5 पबहो। 2. D"चिजलिया। 3. "जवल । 4. सिक्खु । 5. A दंडवाणु सरसरिपमुक्क। 5. BP गयवेयः। 7.5 कंसप्लो पासु।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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