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________________ 86.1.15] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 107 छासीतिमो संधि वइरि जसोयहि पाय कसे पणि परिछि ! क्रमलाहरणु रउदु ते णंदहु पेसणु दिण्णउं ॥ ध्रुवकं ।। सिहिचुरुलिभूउ' तें भणिउ णंदु जहिं गरलगाहि जउणासरंतु जायवि जवेण आणहि वराई ता णंदु कणइ जहिं दीणसरणु जहिं राउ हणइ किं धरइ अण्णु हउं काई करमि फणि सुठु चंडु को करिण शिवइ गउ रायदूउ। मा होहि मंदु। णिवसइ महाहि। तं तुहुं तुरंतु। कयजणरवेण। इंदीवराई। सिरकमलु धुणइ। तहिं दुक्कु मरणु। अण्णाउ कुणइ। तहिं विगयगण्णु। लई जामि मरमि। तं कमलसंडु। को झेंप घिवइ। छियासीवीं सन्धि कंस ने अपने मन में यह समझ लिया कि यशोदा का पुत्र (ही उसका) दुश्मन है। उसने नन्द के लिए कमल लाने का भयंकर आदेश दिया। राजदूत आग की ज्वाला होकर गया। उसने कहा- “नन्द ! तुम देर मत करो, जहाँ विषग्राही महासर्प रहता है, उस यमुना सरोवर के मध्य तुम वेग से जाकर, जनकोलाहल से व्याप्त नीलकमल ले आओ।" __तब नन्द क्रन्दन करता हुआ अपना सिर-कमल घुमाता है कि जहाँ दीनों के लिए शरण मिलती है, वहाँ मृत्यु मिल रही है। जहाँ राजा ही मारता है और अन्याय करता है, वहाँ किस प्रसिद्धि-रहित मनुष्य की शरण ली जाव ? मैं (इस समय) क्या करूँ ? लो मर जाता हूँ। सर्प अत्यन्त भयंकर है, उस कमल-समूह को (1) 1. P"चुरुलिय भूट। 2. P गय। 3. APS जाइचि। 5. A विगयमण्णु। 5. ABP अंप।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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