________________
398 |
महाकपुष्फवंतविरया महापुराणु
[101.12.5
10
वीसरियउ कण्णाहरणु लेवि जामावइ ता बचणु करेवि। गउ णायदत्तु धणु' वहू हरेवि णउ जाणहुं होसइ किं मरेवि । मोणब्वउ लइयउ सुंदरीइ इय चिंतिउं "बहुगुणजलसरीइ। कि जंपमि विणु पीइंकरेण मणभवणणिवासें मणहरेण' । सा मूई तें मण्णिय जडेण ओहारियपरकंचणघडेण । संणिहियदव्यरक्खणणिओइ पत्तउ पुरु पुच्छिउ कहइ लोइ । विभुल्लउ अम्हहं कमलचक्खु णवि जाणहुँ कहिं पीईकरक्खु । एत्तहि पेच्छिवि सायरह तीस गउ पुणु भूतिलयहु मेरुधीरु। जिणभवणु णिहालिउं धुउ जिणिंदु मज्झत्थु समुक्खयदुक्खकंदु । पुणु सुत्तर सुंदरु सालसंगु आणंदु महाणंदु वि सुसंगु। संपत्तु जक्खजुबलर सुवंतु" तहु तेहिं णिहालिउ कपणवत्तु। त वाइवे सुअरिये पुबजम्मु देवेहिं वियाणिउं सुकिउ कम्मु । घत्ता-गुरुयणआएसु अम्हही3 करहुं णिरुत्तउ ।
भो माणुसु एउं गरुयउं गुणसंजुत्तउं ||12||
15
मानो सुन्दर गज सरोवर से निकले हों। उस दुष्ट के असह्य आचरण को नहीं जानता हुआ कुमार नगरपथ की ओर मुड़ा। और जब तक वह कन्या के भूले हुए गहने लेकर आता है, तब तक धोखा देकर नागदत्त, बहू और धन लेकर चला गया। मैं नहीं जानता कि मरने के बाद उसका क्या होगा। उस सुन्दर ले लिया। अनेक गणरूपी जल की नदी उसने अपने मन में विचार किया कि अपने मनरूपी भवन में करनेवाले सुन्दर प्रीतिकर के बिना, मैं क्या बोलूँ ? दूसरे के सोने के घड़े का अपहरण करनेवाले उस मूर्ख ने यह समझा लिया कि वह गूंगी है। वह नगर पहुंचता है। जिसका द्रव्य के रक्षण का नियोग है, ऐसे लोक से पूछने पर वह कहता है कि कमलनयन प्रीतिंकर हमसे भटक गया है, तुम नहीं जानते कि वह कहाँ है। यहाँ पर समुद्र का किनारा देखकर मेरु के समान धीर वह प्रीतिकर पुनः भूतिलक चला गया। उसने जिनभवन को देखा और जिनेन्द्र की स्तुति की जो मध्यस्थ और दुःखसमूह का नाश करनेवाले हैं। फिर अलसाए शरीरवाला वह सो गया। इतने में वहाँ आनन्द और महानन्द नामक सुन्दरमुखवाले यक्ष का जोड़ा आया। उन्होंने उसके कान में बँधा हुआ पत्र देखा। उसे पढ़कर और पूर्वजन्म का स्मरण कर देतों ने अपना पुण्य कम जान लिया।
धत्ता-हम लोग निश्चित रूप से गुरुजनों के आदेश का पालन करें। अरे, यह मनुष्य महान् और गुणों से संयुक्त है।
1. A यधणु। ...A मोगेला माणुवर। 6. बहाणजलसिरीए: P पहुणयजलसरीए । 7. APायरेण | B. AP परवंचणघडेण। 9. A कि पोईकरक्खु P कि पीएंकायन। 10. AP सुचत्तु । II. A कपणे उत्त: P काणपत्तु। 19. AP अहई ।