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महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
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वंदिउ भत्तिइ अवराइएण |
गरुयहं वडइ गुणवंति हु । मंदीसरि अण्णहिं वासरति । अक्खंतु संतु धम्मक्खराई । ता ढुक्क बेणि हलि मुणिंद | मणिय महिणाहें मण्णणिज्ज । केवलदंसणगुण होउ सिद्धि । पहु पभणइ अण्णहिं कहिं मिठाणि । एवहिं सुमरंतु वि जाहिं सरमि । भणु जइ जाणहि तो जणहि तुट्ठि । ता चवइ जेठु पिट्टाइ खीणु । रुई कई दिठ्ठा गत्थिते । पुक्खरदीवि पसिद्ध । पच्छिमसुरगिरिहि" पच्छिमविदेहि धणरिद्धइ ॥6॥
पिउपायदिण्णदढसाइएण आहारु लइउ' आवेवि गेहु पुणु छुड छुडु संपत्तइ वसति वंदेपिणु जिणचेहराई सुविसुद्धसीलजलहरियकंद' वंदिवि वंदारयवंदणिज्ज तेहिं मि पउत्तु भो धम्मविद्धि पुणु सच्चतच्चसवणावसाणि मई दिट्ठा तुम्हई काई करभि पसरइ मणु मेरउं रमइ दिलि रिसि परमावहिपसरणपवीणु भो नृव चिरु ससहरकिति पत्ता - पण परममुणि नृव
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अपने पितृश्री के चरणों का आलिंगन करनेवाले अपराजित ने भक्तिपूर्वक वन्दना की । घर आकर उसने आहार ग्रहण किया। बड़े लोगों का गुणवान् के प्रति स्नेह बढ़ जाता है। फिर शीघ्र ही वसन्त ऋतु के आने पर, दूसरे दिन नन्दीश्वर में जिनचैत्यगृहों की वन्दना कर जब वह धर्माक्षरों की व्याख्या कर रहा था, तब पवित्रतम शीलंवाले तथा सजल मेघों के समान ( गम्भीर ) दो चारण मुनि आकाशमार्ग से वहाँ पहुँचे । देवों द्वारा वन्दनीय और माननीय उनका महीनाथ ने खूब सत्कार किया। उन्होंने भी कहा- “अरे, तुम्हारी धर्मवृद्धि हो और तुम्हें केवलज्ञान से युक्त सिद्धि प्राप्त हो। सच्चे तत्त्वों को सुनने के अनन्तर राजा कहता है - " किसी दूसरे स्थान पर मैंने आप लोगों को देखा है। क्या करूँ ? इस समय याद करने पर भी मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ । मेरा मन फैल रहा है, दृष्टि रम रही है, यदि आप जानते हैं तो मुझे सन्तुष्टि दीजिए।" तब महा अवधिज्ञान के प्रसार में प्रवीण और साधना से क्षीण ( देहवाले) बड़े मुनि बोले - " चन्द्रमा की किरणों की तरह कान्तिवाले हे सुन्दर नृप । सुनो, हम लोगों को तुमने देखा है, इसमें भ्रान्ति नहीं है । "
घत्ता - परममुनि कहते हैं- "हे राजन्, प्रसिद्ध पुष्कर द्वीप में मेरु के पश्चिम विदेह में धन से समृद्ध
(6). B लयड 2. 13 जिणचेइय" 3S सुविशुद्ध 4. AP जलपरिय5. AP णहयरमुनिंद: B हबलमुणिंद 6. S मॅडिय महिणारुहं मडणिज्ज । 7. A सत्ततच्चययणावसाणे P सच्चतच्चसयणावसाणे। 8. ABP णिय 9 ABP णिव 10 B पछि 11 B विदेश |