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81.8.3]
महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु
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गंधिलजणes खगमहिहरिंदि सूरप्पहपुरि" पहसियमुहिंदु पियकारिणि धारिणि तासु घरिणि जाया कालें सुकवाणुरूय ताहे णंदण णं धम्मत्थकाम ते तिणि सहोवर मुक्कपाव तहिं अवरु अरिंदमणयरि राउ तहु पणइणि गायें अजियसेण यत्ता - पीईमई तणय जाइ सरूवएण
उत्तरसेडिहि धवलहररुदि ।
सुरहु णायें हरिं । वम्महधरणीरुहजम्मधरणि । भाभारवंत भूतिलयभूय । चिंतामणचवलगड त्ति णाम । णं दंसणणाणचरित्तभाव । णामेण अरिंज जयसहाउ कीलंत दोह मि रइरसेण । हुई" सा किं मई वणिज्जइ । उव्यसि " रइ रंभ हसिज्जइ ॥ 7 ॥ ( 8 )
परियत्रिवि सुरगिरिवरु तिवार णीसेस विणियपयमूलि घित्त मणगइचलगइणामालएहिं
जो लेइ माल 'मणिकिरणफार । विज्जाह मेह भमंत जित्त । आवेष्पिणु धारिणिबालएहिं ।
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विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के गन्धित जनपद में धवलगृहों से सुन्दर सूर्यप्रभपुर नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा था जो अपने मुख की कान्ति से चन्द्रमा का उपहास करता था। प्रिय करनेवाली धारिणी नाम की उसकी पत्नी थी जो कामरूपी कल्पवृक्ष की जन्मभूमि थी। समय आने पर, उसके पुण्य के अनुरूप आभा के भार से युक्त ऐश्वर्य की लता के बाहुवाले ( तीन ) पुत्र उत्पन्न हुए। वे तीनों धर्म, अर्थ और काम थे । चिन्तागति, मनोगति और चपलगति उनके नाम थे। वे तीनों ही भाई मुक्तपाप थे मानो दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यभाव हों। वहीं अरिंदमपुर नगरी में जयस्वभाववाला अरिंजय नाम का राजा था। उसकी अजितसेना नाम की प्रणयिनी थी । रतिरस के अधीन क्रीड़ा करते हुए उन दोनों के
घत्ता - प्रीतिमती नाम की कन्या हुई । उसका मैं क्या वर्णन करूँ ? अपने स्वरूप से वह उर्वशी, रति और रम्भा का उपहास करती थी ।
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वह श्रेष्ठ सुमेरु पर्वत की तीन बार प्रदक्षिणा कर मणिकिरणों से विस्फारित माला लेती थी। सुमेरु पर्वत की परिक्रमा देते हुए समस्त विद्याधरों को उसने जीत लिया था और अपने चरणों के नीचे डाल लिया था ।
(7) 1. P "हरेदि । 2. P पूरे 3. B धरिणी । 4. APS AP भू 6. S तहो। 7. 13 दोहिं & AP रइवसेण 9 D पिमइ P पीइयर | 10. ABP तणया । 1. 5 भूहं Als. हुइ against Mss. 12. A सुरुवएण। 13. A उन्मसि
( 8 ) 1 B तिवास। 2.
मणिरयणिः । मणिस्य। 3. B फारु 1 4 णीसेशिवि। 5. मूल i. A पिज्जाहर ।