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महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु
[99.20.1
(20)
अप्पुणु' पुणु जणणासणि णिविठु दारावइपुरवरि णाइ विठ्ठ। णं पोयणपट्टणि चिरु तिविठु थिउ सिरि रमंतु णं सइं दुविछु। अठ्ठहिं मइएविहिं सहुँ जणिछु णं संकरिसणु परिउटुसिटुं'। पुणु कालें जंतें कोवणि? वणि 'कइजुवलउं जुज्झतु दिछु । संसारु घोरु बुज्झिवि अणिंदु वंदेवि वंकचारणु मुणिंदु। ढोएवि वसुह हरिकंधरा णियतणयह अत्ति वसुंधगसु । पावइउ णमंसिवि वड्डमाणु जीवंधरमुणि भवतरुकिसाणु। विजयाएविइ सुललियभुयाइ चंदणहि पासि सुरवरथुयाइ। अट्ठ वि तहु घरिणिउ दिक्खियाउ । सत्थंगोवंगई सिक्खियाउ। सच्चंधरसुउ सुवकेवलित्तु पत्तउ पुणु राय तिदेहचत्तु । जाही णिव्वाणहु मागहेस पई पुच्छिय मई अक्खिय असेस। कह' जासु परमजोईसरासु सो कुणउ मज्झु मिच्छत्तणासु। जीवंधरु देउ समाहि बोहि विद्धंसउ पणइणिपेम्मवाहि ।
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(20) वह स्वयं पिता के सिंहासन पर बैठा जैसे द्वारावती में स्वयं कृष्ण बैठे हों, मानो पहले पोदनपुर में त्रिपृष्ठ बैठा हो। मानो श्री का रमण करता हुआ स्वयं द्विपृष्ठ हो। लोगों के लिए प्रिय, आठों महादेवियों के साथ यद ऐसा लगता था मानो प्रजा को सन्तुष्ट करनेवाला संकर्षण हो। फिर समय बीतने पर, उसने वन में क्रोध सहित लड़ते हुए दो वानरों को देखा। संसार को भयंकर समझकर तथा अनिन्ध प्रशस्त चारण ऋद्धिधारी मुनीन्द्र की वन्दना कर, सिंह के समान हैं कन्धे जिसके ऐसे वसुन्धर नाम के अपने पुत्र को धरती सौंपकर, संसाररूपी वृक्ष के लिए आग के समान मुनि जीवन्धर कुमार ने वर्धमान को प्रणाम कर दीक्षा ग्रहण कर ली। सुन्दर बाँहोंवाली देवों के द्वारा संस्तुत विजयादेवी आदि उनकी आठौं पलियों ने आर्यिका चन्दना के पास दीक्षा ग्रहण कर ली एवं अंग-उपांग सहित शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। हे राजन् (श्रेणिक) ! इस समय शरीरों का त्याग करनेवाले तीनों (सत्यन्धर के पुत्र) श्रुतकेवली हो चुके हैं। वे निर्वाण को प्राप्त होंगे। हे मागधेश ! तुमने पूछा और मैंने समस्त कथन कर दिया। जिस परम ज्योतीश्वर की कथा (गणधर ने की) वह जीवन्धर स्वापी, मेरे मिथ्यात्व का नाश करें। वे मुझे समाधि और ज्ञान दें तथा स्त्रियों में होनेवाली प्रेमव्याधि दूर करें।
(20) I. APणण। 2.A पोरणे परदरं । 3. A परिनु
4.A कनिजुनजर P कयजयल। 5. P कंक 1 6. A विजयादेविहे। 7.P कट्ठ जासु।