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101.8.3]
महाकइपुप्फयंतविरघउ महापुराणु
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लक्खणलक्खिउ जयलच्छिगेहु तव' होसइ तणुरुहु चरमदेहु। तं णिसुणिवि मायापियरवाई संतुट्टई णियमंदिरु गयाइं। ता बिहिं मि तेहिं बहुपुण्णवंतु णवमासहि सुउ संजणिउ कंतु। किं वणिज्जइ पीइंकररखु विहवेण इंदु स्वेण जक्खु। संपुण्णहिं पंचहिं बच्छरेहि जणणीजणणेहिं सुहिच्छिरेहि। अप्पिउ पयपुज्जहु मुणिवरासु उवइटउ चिरु आएतु तासु। इहु होसइ सुंदरु तुज्झु सीसु कम्मक्खयगारउ जयविहीसु। धण्णउरि परिट्टिउ सयलु सत्यु उवइट्वउ तह मुणिणा महत्थु । आसण्णु भव्यु सो महइ दिक्ख मेल्लिवि घरु चरमि' मुणिंद भिक्ख'। गुरु भासइ वयह ण एहु कालु अज्ज वि तुहं कामेलदेहु बालु । धत्ता-तं वयणु सुणेवि गुरु वंदिवि गउ तेत्तहिं।। णियपियरई बे वि णाणासवणई जेत्तहिं ॥7॥
(8) णिसुणंतह लोयह कहइ अत्थु सो चट्टवेसधरु दिसइ सत्यु। संमाणिउ राएं गुणणिहाणु धणु अज्जवि सुंदरु मण्णमाणु। णउ परिणइ कण्णरयणु जाम अण्णहिं वासरि सुहिपुरिस ताम।
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"तुम्हारा लक्षणों से युक्त एवं विजयलक्ष्मी का घर पुत्र होगा।" यह सुनकर माता-पिता सन्तुष्ट होकर अपने घर चले गये। उसके बाद उन दोनों का नौवें माह में प्रचुर पुण्यवाला सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। उस प्रीतिकर का क्या वर्णन किया जाए ! वह वैभव में इन्द्र और रूप में यक्ष था। पाँच वर्ष का होने पर शुभ चाहनेवाले माता-पिता ने उसे पूज्यपाद मुनिवर को सौंप दिया और इस प्रकार उनके पुराने आदेश को उन्होंने बताया कि यह तुम्हारा सुन्दर शिष्य होगा, कर्म का क्षय करनेवाला और जय से हँसनेवाला शिष्य। धान्यपुर में रहकर उन मुनि ने उसे महार्थ वाले शास्त्रों का उपदेश दिया। वह आसन्न भव्य था। वह दीक्षा की अभिलाषा करता है और कहता है-“हे मुनीन्द्र ! घर छोड़कर भिक्षा का आचरण करूँगा।" गुरु कहते हैं-"यह व्रत का समय नहीं है। तुम आज भी कोमल-शरीर बालक हो।"
घत्ता-यह वचन सुनकर और गुरु की वन्दना कर वह वहाँ गया जहाँ उसके माता-पिता और स्वजन थे।
शिष्य का रूप धारण किये हुए वह श्रोताओं को अर्थ बताता है और शास्त्र का उपदेश करता है। उस गुणनिधान का राजा ने सम्मान किया। धन कमाने को ही सुन्दर मानते हुए उसने कन्यारत्न से विवाह नहीं
(1) I. A तु P तउ । 2. A पियंकरक्छु । 3. AP घरेमि। 4. A सिक्ख ।