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________________ 85.4.4 1 महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु देमि ताम जा देवि णिरिक्खमि लइ लड़ लच्छिविलासरवण्णउ भति" म करहि काई मुहु जीवहि ता हियउल्लइ गंदु वियप्पइ लेमि पुत्तु किं पउरपलावें एम "चवेपि अप्पिय बाली लउ वि सादें णंदें हुउ सकयत्थउ गउ सो गोउलु ता हलहेइ भइ सुणि अक्खमि । एहु पुत्तु तुह देवि दिण्णउ । मेरइ करि तेरी सुय ढोयहि । परवेसेण भडारी जंपड़ । परिपालमि सणेहसमावें । बलकरकमलि कमलसोमाली । मेहु व जालिंगियउ गिरिंदें । जणय' तणय पड़िआया राउलु । घन्ता - सुय छणससिवयण देवइयहि पुरउ णिवेसिय । केण वि किंकरिण णरणाहरु वत्त समासि ॥ ॥ (4) दुवई - पुरणहहंस कंस परधरिणिविलंबिरहारहारिणा । जाया पुत्ति देव गुरुघारिणिहि वइरिणि 'मलयदारुणा ॥ छ ॥ तं णिसुणेपिणु णरवइ उडिउ जाइवि ससहि णिहेलणि संठिउ । तेण खलेण दुरियवसमिलियहि कुंडु जायहि णं अंबयकलियहि । [ 81 10 15 होगी और नहीं तो गन्ध, धूप, नैवेद्य और पुष्प तथा सुन्दर रसीले खाद्यरूप देवी को दूँगा जब उसे देखूंगा । तब बलराम कहते हैं- "सुनो, मैं बताता हूँ । लो ! लो ! लक्ष्मीविलास रमणीय यह पुत्र । यह तुम्हें देवी दिया है। तुम भ्रान्ति मत करो। मुख क्या देखते हो, मेरे हाथ में तुम अपनी पुत्री दे दो ।" इस पर नन्द अपने मन में विचार करते हैं कि यह मनुष्य के रूप में देवी ही बोल रही है। मैं पुत्र ग्रहण कर लेता हूँ । चहुत बकवास से क्या, स्नेह और सद्भाव से इसका परिपालन करूँगा। यह विचारकर उसने बालिका सौंप दी - कर-कमलोंवाली और कमल के समान सुकुमार । नन्द ने आनन्द से विष्णु (कृष्ण) को ले लिया, जैसे गिरीन्द्र ने मेघ का आलिंगन किया हो। वह कृतार्थ होकर गोकुल के लिए चला गया। वसुदेव और बलराम राजकुल में वापस आ गये। घत्ता - उन्होंने पूर्णिमा के चन्द्रमा ने राजा से यह बात कह दी। समान मुखवाली कन्या देवकी के सम्मुख रख दी। किसी अनुचर (4) हे नगररूपी आकाश के सूर्य कंस ! पर स्त्रियों के लटकते हुए हार को ग्रहण करनेवाले वसुदेव के द्वारा गुरुगृहिणी (देवकी) से शत्रुकन्या उत्पन्न हुई है । यह सुनकर राजा उठा और जाकर बहिन के घर में स्थित हो गया। उस दुष्ट ने पाप के वश से मिली हुई, शीघ्र उत्पन्न हुई, आम्रकलिका के समान कोमल और सरल J. S दिए। . Aumits म and reads करेहि livr करहि । 6. AP मणेपिणु। 7. PS चरकरकमलि 8 Als सुकन्यagainst Mss. 9. As जणण नग्य। (4) 1 A दलवदारुणाः पतयासी ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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